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जल भरकर उसमें भी मंत्र पंचक पूर्वक दो, नौ आदि के साथ चार का भी ध्यान रखना चाहिए। इसी क्रम से युग्म तिथि के परिणाम पूर्वक घटों का क्रम से न्यास करना चाहिए । दश अंश के मध्य में भी एक घट का न्यास होना चाहिए। ऐसा जैन मत में भाष्य है ।। ३९ ॥
उत्तरोतर संबुडु सत्ती गुरुणिणएसियो। आलुच्च किययामेव पायच्छितविहिक्कमो ॥ ४० ॥
उत्तरोत्तर संवृद्धचा, शक्त्या मुरु निदेशितः । आलोच्य क्रियतामेव, प्रायश्चित्त विधि क्रमः ।। ४० ।।
शक्ति अनुसार, गुरु आदेश पर उत्तरोत्तर वृद्धि करें। आलोचना पर गुरु आदेश से, क्रम से प्रायश्चित्त विधि का पालन करें।
क्रमशः उत्तरोत्तर, गुरुदेव के निर्देशानुसार आज्ञा प्रमाण प्रायश्चित्त विधि को बढ़ाता जाय । पुनः गुरु सानिध्य में विधिवत् निश्छल भाव से आलोचना कर प्रायश्चित्त विधि करना चाहिए ।। ४० ॥ यदि गुरु न हो तो.
अप्पा एव गुरु किच्चा सक्खिणो दोस सुद्धिणो। गणोवक्काय संसुद्धए किएयध्वं पडिक्कम ।। ४१ ॥
आत्मादेव गुरुन् कृत्वा, साक्षिणो दोष शुद्धये । मनोवाक्काय संशुद्धया, क्रियेतव्यं प्रतिक्रमं ॥ ४१ ।।
गुरु व देव की साक्षी में आत्म दोषों को शुद्ध करें। प्रतिक्रमण के द्वारा मन, वचन, काय को शुद्ध करें॥ ४१ ।।
अपराधी स्वयं की आत्मा को ही गुरु मान कर स्वयं की साक्षी में दोषों की शुद्धि के लिए आलोचना करे । पुनः मन, वचन, काय की शुद्धि द्वारा प्रतिक्रमण क्रिया करें ।। ४१॥
जिणताणा जवज्झाणं दाणं सयय संजभो। वयसीला बुद्धि तहा संवर णिज्जरे ॥ ४२ ॥
प्रायश्चित्त विधान .. १०