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तीनों संध्याओं में शुद्ध जल से स्नान कर शुद्ध हुआ ईपिथ शुद्धि से गमन कर आगमानुसार विधि से जिन स्तवन, पूजा और दान करें। श्रावक को निरंतर, सदैव इस प्रकार का अनुष्ठान प्रतिदिन करना चाहिए ॥६१ ॥
तवच्चंदायणं तवं, स्यणावलि मुत्तं च। रिणाय गुण संपा, में पाया जाम ।
तपश्चांद्रायणं रत्नावली-, मुक्तावलि-तपः। जिनानां गुणसंपत्ति, स्तप आचरवर्द्धनं ।। ६२॥
व्रत चन्द्रायण, रलावली, मुक्तावली जब होय । जिन गुण सम्पत्ति करने से, चारित्र शुद्धि होय ।। ६२ ।।
श्रावकों को आचार शुद्धि की वृद्धि के लिए विविध तप करना चाहिए। वे तप हैं - चांद्रायण, रत्नावली, मुक्तावली, जिनगुण संपत्ति आदि व्रताचरण रूप तप करना चाहिए ।। ६२ ।। तथा
एगयरं तिरतिं च, महाकल्लाणा णामगं । अट्ठ पक्खुववासं च, सतीए तव तप्पए। ६३ ।।
एकांतरं त्रिरात्रं च, महाकल्याण नामकं । अष्ट पक्षोपवासादि, तपं शक्त्या सुतप्यते ।। ६३ ।। एक के अन्तर में, तीन रात्रि तक महाकल्याणक होय । आठों पक्ष शक्तिनुसार उपवास करें, तभी तपस्या होय ।। ६३ ।।
एकातर-एक दिन छोड़कर उपवास, अर्थात् एक उपवास एक पारणा पुनः उपवास फिर पारणा यह एकांतर है, दो उपवास एक पारणा, तीन उपवास एक पारणा, आठ उपवास एक पारणा, पंद्रह दिन का उपवासादि महाकल्याण नामकादि तपों को यथा शक्ति तपना चाहिए ॥६३॥
तेसि आयरणं सवं, उक्ते य परमागमे । तेणि विहि उवाएणं कायव्वं च स सतिणो ॥६४॥
प्रायश्चित्त विधान - १०१