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संज्ञी पंचेन्द्रिय के घात होने पर उपर्युक्त विधि से द्विगुणित दूना प्रायश्चित्त
है, तथा तीन उपवास और दो महामस्तकाभिषेक भी करें ।। ६९ ।। अपवित्तों पवित्तो वा, सव्वावद्वं मओ वि वा । जो सरेज्ज सु अप्पाणं, बहि आन्तरं सुई ॥ ७० ॥
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अपवित्रः पवित्रो वा सर्वावस्थां गतोऽपि वा । यः स्मरेत् सकलात्मानं, सः बाह्याभ्यंतरे शुचि ॥ ७० ॥ अपवित्र व पवित्र स्थान, जब जल छांटकर पवित्र होय । तब अरहंत स्मरण से बाह्य व अन्तर मन पवित्र होय ॥ ७० ॥
पवित्र दशा हो या अपवित्र अवस्था हो, जो व्यक्ति प्रत्येक अवस्था में श्रद्धा पूर्वक अर्हत् वाचक महामंत्र का स्मरण करता है वह बाह्य और अभ्यंतरउभय शुद्धि का पात्र हो जाता है ॥ ७० ॥
भोत्तुं अणसणाओ हि, विवज्जेज्ज हि अंग च । तं अण्णं परिहायचं, अण्णण्णं च समाहरे ॥ ७१ ॥
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भोक्तव्यानशनात्पूर्वं व्युत्सजं त्वंग वीक्षये । तदनंपरिहर्तव्यं मन्यदन्नं समाहरेत् ॥ ७१ ॥
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पूर्व में उपवास कर, फिर भोजन करना । फिर भोजन परिहार कर, अन्य जगह भी नहीं खाना ॥ ७१ ॥
भोजन प्रारंभ करने के पूर्व ही यदि कोई मृत जीव का कलेवर दृष्टिगत हो
जाय तो उस अन्न को त्याग कर अन्य भोजन करना चाहिए ।। ७१ ।।
वित्तासणं च भुत्तिं च तहिं अङ्क परिण्वजे । सव्व दोसं च संतुहु दिणदिणेसु वितणे ॥ ७२ ॥
वृत्ताशनं मुक्तौ च तस्मिन्नष्टं परित्यजेत् ।
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समृतं दोष शांत्यर्थं तद्दिनेषु वितन्यते ॥ ७२ ॥
प्रायश्चित विधान १०४
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