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भोजन व उपवास इस प्रवृत्ति से कर, नश्वर शरीर का त्याग करें । उन दिनों में ऐसा कर, वे अपने मृत्यु दोष को शांत करें ॥ ७२ ॥
भोजन करना प्रारंभ करने पर उसमें प्राणी कलेवर दृष्टिगत होने पर उस दिन भोजन का परित्याग करना चाहिए ॥ ७२ ॥
भायणा वास मेहे वि, विड मुत्त विण चम्मं । तुझेज्ज अइ गंधं च तत्थ भुत्तिणि सेज्जेज्जं ॥ ७३ ॥ भोजनावास - गेहेऽस्थि, व्रण- विद-मूत्रचर्मणि । दुष्टे वातीव दुर्गंधं तत्रभुक्तिर्निषिध्यते ॥ ७३ ॥
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हड्डी, मूत्र, चर्म आहार में दृष्टि पड़े तब जोय । अन्तराय तब ही करे, निर्विकल्प अवस्था होय ॥ ७३ ॥
भोजनशाला - रसोई घर में यदि अस्थि-हड्डी, पीव, राघ, मल, मूत्र, चर्म
( चमड़ा) आदि दृष्टिगत हो, अथवा अत्यन्त दुर्गंधित हो वहां भोजन करना निषिद्ध है। अर्थात् उपर्युक्त कारणों से अपवित्र स्थान में भोजन नहीं करना चाहिए ॥ ७३ ॥
अप्फासं च विलोमं च तं वचं सुइ गोयरे । भोयणं परिहाएव्वं, दुव्वचं सवणं अवि ॥ ७४ ॥
अस्पृश्यं विलोकेऽपि तद्वचः श्रुतिगोचरे । भोजनं परिहर्तव्यं, दुर्वचः श्रवणेऽपि च ॥ ७४ ॥
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छूने योग्य न वस्तु को बोलन, देखन, सुनजान । फिर भोजन को त्याग कर, कहा जिनेन्द्र भगवान ॥ ७४ ॥
अस्पृश्य- चाण्डालादि के देखने पर उनका वचन सुनने पर तथा मार, काट आदि कटु, कठोर वचन सुनने पर भोजन का त्याग कर देना चाहिए ॥ ७४ ॥ जंतू पद्दव संप्तिहिं, मज्जार आइ दीवणं । पतंग पडणं जायं, भोयर्ण परिवज्जए || ७५ ॥
प्रायश्चित विधान १०५
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