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पर्व में उपवास कर, दिन के अन्तर से सोय। केवल एक ही, अन्न का अशन करो सब लोय ॥ ५६ ॥
प्रत्येक पर्व-अष्टमी-चतुर्दशी को उपवास करें। अथवा एक दिन रात्रि के अनतर उपवास करें। अथवा समय की गति के अनुसार अनेक उपवास करना चाहिए ॥५६॥
मा अगसणं कर लग पोस यसम। पंचवारं जहा कुती पंच कल्लाण संभजे ।। ५७ ॥
अन्त्येचानशनं प्रोक्तं, कल्याणं दोषोत्तमं । पंचवारं यथावृत्तिः, पंचकल्याणं नाम भाक् ।। ५७ ।।
श्रेष्ठ है कल्याण दोष के लिए, जब उपवास होय। पंच बार प्रवृत्ति करे, तब पंचकल्याणक होय ।। ५७ ॥ पूर्ण विधिवत् उपवासादि हो जाने पर अंत में एक कल्याण तपाचरण करें। दोष की निवृत्ति के लिए इसे पांच बार इस प्रकार करने पर पांच कल्याण नाम प्रायश्चित्त पूर्ण होता है । अर्थात् पांच आचाम्ल, पांच निर्विकृति, पांच पुरु मंडल, पांच एक स्थान, और पांच उपवास व्यवधान रहित करना पंच कल्याण कहलाता है। सभी की परिभाषा पूर्व में आ चुकी है।। ५७ ॥
पढमणसणं भावं अवमोदरियं जुयं । वितिसंखार सच्चागं विवित्त सयणासणं ।। ५८ ॥
आदावनशनं तद्व, दवमौदर्यमन्वतः। वृत्तिसंख्या रसत्याग, विविक्त शयनासनं ।। ५८॥
प्रारम्भ में उपवास कर, फिर अवमौदर्य करे। क्रम से रस का त्याग, विविक्तशयनासनं करे ॥ ५८॥
प्रारंभ में उपवास पुनः क्रमशः अवमौदर्य करे, वृत्ति परिसंख्यान, रसपरित्याग, विविक्त शय्यासन तप करें। ५८ ॥ इस प्रकार
प्रायश्चित विधान - ९९