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श्राविकाओं को सौ बार प्रसन्नता से दान दें। अथवा चारों वर्गो कह्मण-पत्रियवैश्यशूद्रों को एक सौ संख्या में दान देवें । यथाशक्ति भोजनादि करावें ॥ ५३ ॥ सिविणे हि पमायाओ, मूलव्वय परिच्चया । सव्व सुद्धि महण्हाणं, तवो वल्ली तवं चरे ॥ ५४ ॥ स्वप्ने प्रमादतोऽथवा, मूलव्रत परिच्युतौ ।
सर्व शुद्धिमहास्नानं तपोवल्ली तपश्चरेत् ॥ ५४ ॥
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प्रमाद से स्वप्न में, जब मूल व्रत छूट जाय । महास्नान से शुद्धि कर, तपो बल्ली तप होय ॥ ५४ ॥ स्वप्न में अथवा प्रमाद से पाप का मूल रूप यदि व्रत का समूल नाश हो गया हो, अर्थात् सर्वथा व्रत च्युति हो जाय तो उसकी पूर्ण महामस्तकाभिषेक करे । एवं यथा शक्ति अनशनादि तपाचरण कर शुद्धि करें। तथा उपर्युक्त निरंतर लघु तपाचरण करें ।। ५४ ॥
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णाणज्झाणाहि जुत्तं, पडिहं संजपे पदं ।
सहस्स पत्त दाणं च जहा सत्तिं वितण्णए ॥ ५५ ॥
ज्ञानध्यानाभिर्युक्तं प्रत्यहं संजपेत्पदं ।
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सहस्रं पात्रदानं च यथाशक्ति वितन्यते ॥ ५५ ॥
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ज्ञान, ध्यानादि युक्त, अच्छे से जप जब होय ।
तब शक्तिनुसार, दान हजार पात्र को देय ॥ ५५ ॥
प्रतिदिन ज्ञान ध्यानादि से संयुक्त रहकर शुद्धि करें। साथ ही यथाशक्ति एक
हजार पात्रों को यथायोग्य, यथोचित दान प्रदान करें ।। ५५ ।।
पव्व असणं किच्चा वागवतं दिवंतरे । केवल मेग सिद्धेव कालाइक्कमाणसणं ॥ ५६ ॥ पर्वण्यनशनं कृत्वा, या वाग्वत्तं दिवान्तरे । केवलानेक सिद्धेव, कालतिक्रमणाशनं ॥ ५६ ॥
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प्रायश्चित विधान ९८
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