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तवोवल्ली तवयाहू एगंव अणुवितिणो ।
चउपंचाणु वित्ती उत्त आदि विभाग ए ।। ५९ । तपोवल्ली तपः प्राहु-रेकद्वि अनुवृत्तितः ।
चतुः पंचानुवृत्ति स्था- दुक्तमादि विभागभाक् ॥ ५९ ॥
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प्रारम्भ में तपो बल्ली तप, जब एक-दो बार अनवरत होय ।
तब उत्तमादिक का विभाग कर, चार-पांच की प्रवृत्ति होय ॥ ५९ ॥
दो, तीन बार क्रमशः तप करना अथवा अनुक्रमण से चार, पाँच आदि रूपों का करना तपवल्ली तप कहलाता है। अर्थात् आनुपूर्वी क्रम से तपाचरण करना तपवल्ली तप है ॥ ५९ ॥
मासे मासे चउपव्वे उदवासं च संजयं । जिण आणा जवज्झाणां तत अगणि समं च ए ॥ ६० ॥ मासे मासे चतुर्पवें, सूपवास समन्वितः ।
बिनाप्ताज्ञा जप ध्यानो, तपवत्पाप वर्जितः ॥ ६० ॥ एक-एक महीने के चार पर्व में, समान रूप से उपवास करें। जिनेन्द्र आज्ञानुसार, तप, ध्यान अप से पाप को दूर करें ॥ ६० ॥
पाप वृत्ति से रहित जिनेन्द्र भगवन्त आप्त की आज्ञानुसार प्रत्येक मासमहीने में हर एक पर्व दिनों में अर्थात् अष्टमी चतुर्दशी को अनशन उपवास करना चाहिए ॥ ६० ॥
णिच्वं तिद्वाणं संतत, कए पहिग सुद्धिगो । तिक्काल विहिए थोए, पूयादाणं सया सुई ॥ ६१ ॥
नित्यं त्रिस्नानं संतप्त, कृतेर्यापथशुद्धिकः । त्रिकालविहिते स्तोत्रे, पूजादान सदाशुचि ॥ ६१ ॥
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नित्य तीन बार स्नान से, मारग शुद्धि होय । तीनों काल में स्तुति, पजा दान से शुद्धि हमेशा होय ॥ ६१ ॥
प्रायश्चित विधान १००
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