________________
सम्मापागामार ___उपर्युक्त विधि से आलोचना करने से सर्व पापों का नाश होता है और पुण्य का उपचय-वृद्धि होती है। इसका हेतु अर्हद् अर्चना-पूजा, सत्पात्र दान, शील और व्रत हैं। अर्थात् जिन पूज:, उतभ-मम-जपन्य सत्पात्रों को चार प्रकार का दान देना, शीलों का पालन, व्रतों का आचरण करने से पापों का नाश और सातिशय पुण्य की वृद्धि होती है । ४४ ।।
सवितुं अरहदाणं गाणं झाणं जवं वर्थ । सीलं च संजम कुज्जे पुण्णादाणेण संतए ।। ४५ ।।
सवित्तोऽहन्-महादानं, ज्ञान-ध्यान-जप-ब्रतं ।
शीलं च संयमं कुर्यात्, पुण्यादेनः प्रशांतये ॥ ४५ ।। उसी प्रकार अरहंत को महादान, ज्ञान, ध्यान जप व व्रत करता है। वही प्रशंसनीय होता है, जो शील व संयम से पुण्य करता है ।। ४५॥ ___ समर्थ संपत्ति सम्पन्न श्रावक को यथाशक्ति विशेष रूप से जिन पूजा, दान कर तथा ज्ञान, ध्यान, जप, व्रत, शील और संयम का आचरण करें। क्योकि पाप कर्मों की शांति के लिए यही आठ श्रावक धर्म कारण है। कारण उपर्युक्त विधि से पुण्यार्जन होगा और पाप की शांति भी होगी। अस्तु अशुभ कर्मों के फल की शांति के लिए पुण्यार्जन विधि करना चाहिए ।। ४५ ।।
णिन्वुत्तारह दाणं च, कारिओ णुमओ सया। दायत्वं तं इमं कुन्चे, सुद्धज्झाणेण हि हवे ॥ ४६ ।।
निर्वृत्ताऽर्हन महादाने, कारितोऽनुमतः सदा । दातव्या तच्चयं कुर्वन, शुद्धो ध्यानादिभि भवेत् ।। ४६॥ अरहंत निर्वाण पर कृत कारित अनुमोदना से महादान को देता है। देने वाला व लेने वाला, शुद्ध ध्यानादि रूप में होता है ।। ४६ ॥
जिनके पास उचित धन नहीं है, उनको महाजनों को धर्म कार्यों में प्रेरणा देकर कारित, अनुमोदना उनकी प्रशंसादि कर तथा स्वयं व्रत, शील, धारणarrrrrnपासाsrrror
प्रायश्चित्त विधान - ९४