________________
SARAM
HAMALAILSINAA
xx:24taantamnnarottammnapgarix
पालन करना चाहिए। सुखेच्छुओं को इसी विधि से पुण्यार्जन करना चाहिए। निश्चय से कृत समान ही पुण्योपलब्धि होती है ॥ ४६ ॥
तम्हा जिणच्चणं दाणं, वयं सीलं सुहहिणो। तओ अण्ण प संतं च, पुण्णुबज्जणं धुवं ।। ४७ ।।
तस्माजिनार्चनं दान, व्रतं शीलं सुखार्थिनां । ततोऽन्येन प्रशांचिश्त, सु-पुण्योपार्जनं ध्रुवं ।। ४७ ।। उन जिनेन्द्रकी अर्चना, मान, तर शाल सुख को देते हैं। अन्य जगह भी शान्ति बढ़ाकर पुण्य को बढ़ाते हैं ।। ४७ ॥
सुखेच्छुओं को शांति प्राप्त करने के लिए जिनेन्द्र प्रभु की पूजा, दान, व्रत, शीलादि का सम्यक् आचरण करें, जिससे निश्चय से सातिशय पुण्य प्राप्त होता है।। ४७॥
सुकिज्ज काय संचार, दंड भंगप्पभाअओ। णायारहंपडि विवं, दोस शुद्धिंचविज्जए॥ ४८॥
स्वकीय काय संचारा-दंगभंगे प्रमादतः। ज्ञातोऽर्हत् प्रतिबिंबस्य, दोषशुद्धिर्विधीयते ॥ ४८।। अपने शरीर के प्रमाद से, जब अरहंत का अंग-भंग करें। दोषों को अपने जानकर, शीघ्र इसकी शुद्धि करें। ४८ ।।
यदि प्रमादवश-अज्ञातदशा में अपनी काय चेष्टा के विपरीत होने से अर्हत बिंब (प्रतिमाजी) का कोई अंग या उपांग भंग हो गया हो तो अवगत होते ही उसकी शुद्धि का शीध्र ही विधान करना चाहिए। आगे उसकी शुद्धि का विधान आचार्य देव कहेंगे ॥४८॥
__ रयण लोह सिलं च, घाउ-वजं च पज्जए। पडिमं सव्व हुं ठावे, तारिच्छं वाय मुच्चरे ॥ ४९ ।।
रत्नलौह-शिला धातु, वज्र संपादितासु या।
प्रायश्चित्त विधान - ९५