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विण्णेहे कलसं कए हि णव अंस स कुत्ते पुणो। मझे एगमिइ दुवेऽत्थु सयणिक्खेवं कुणे पंडिया॥३५ ।। त्रिंशत्सूत्रेण कृत्वा-खर सु शिर धरा-संमिताशान्दिशायुत् । पंचकमध्ये द्विवीथि-गिरिमित् कलशानष्ट पंक्ति सुवृत्ते ।। बाह्येपंक्ति द्वयोऽपि प्रतिविदिशि घटान् विंशतिं तच्चतुर्थे । पंचैक कुंभमंतर्वसुजस्तदपापंतुमा कुंभवासः ॥ ३५ ॥ पहले तीस सूत्र बनाकर तीस प्रकार का विन्यास करें।
उस पृथ्वी पर पांच मध्य में पहले खर स्थापित करिये ॥ फिर दोनों के बीच में आठ कलश मोल पंक्ति में करना चाहिए। बाहर की पंक्ति में दोनों तरफ दिशा विदिशा में बीस घड़े रखने
चाहिए ॥ ५ सर्वप्रथम तीस सूत्र बनाकर तीस प्रकार का विन्यास करके उस भूखंड पर पंचक के मध्य में खर आदि पूर्वक स्थापित करना चाहिए। इसके अनंतर दोनों के बीच में आठ कलश से वृत्ताकार पंक्ति बद्ध करना चाहिए। बाहरी पंक्तियों के दोनों ओर दिशा विदिशाओं में बीस घट स्थापित करने चाहिए। (पांच-पांच की संख्याओं में चार पंक्तियों में ) ॥ ३५ ॥
वज्जियण्ण अट्ट पएसु सत्त कला निति च मज्झे । सुही एसिं अट्ठसयप्पमाणं घड विकलेव कमक्कम ।।
सुत्त च दुवे हि भासिय पए अक्असंवले कए। तु पादं परिओ सविरहिय हरिभागस्स जुम्मे सु॥३६॥ सूत्रोषोडश भाषितं नव-पदे, अष्टाभिसंख्ये कृतेषु । ध्वत् पाद्योः परितः सतुर्य, पथ्यो राश्पंश सून्यं बुधाः ।।
विन्यस्ये कलशान्कृते तु नवमां-शं सप्त वृत्चे पुनः। मध्ये च्येकमिति द्वयोऽस्तु शतयो न्यासं कुरुपंडिताः ॥ ३६॥
प्रायश्चिम विधान - ८१