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अर्हत्पूजानमाचार्याः, चास्ति स्वाध्याय संयमो । व्रतानां पालनं दान, मनुष्ठेयं गृहाश्रमे || ३ || संयम, स्वाध्याय, अरहंत पूजा, आचार्य को नमन कर । गृहस्थ श्रेष्ठ दान को देय, व्रत का पालन कर ॥ ३ ॥
गृहस्थाश्रमवासी श्रावकों को प्रतिदिन अर्हत भगवान की पूजा, आचार्यउपाध्याय एवं साधु परमेष्ठियों की अर्चना, भक्ति, स्वाध्याय - आर्ष परंपरागत ग्रन्थों का अध्ययन, शक्ति अनुसार इंद्रिय संयम और प्राणी संयम धारण, अणुरूप व्रतों का पालन, एवं चतुर्विध संघ को चार प्रकार का दान करना चाहिए। आहार, औषधि, ज्ञान (शास्त्र) और अभयदान के भेद से दान चार प्रकार का कहा है। अर्थात् उपर्युक्त षट् कर्मों का पालन करना, अनुष्ठान करना प्रत्येक श्रावक का नित्य नैमिति का है । अवान व शुक्र की काटन
अभक्ष्य भक्षणादि से इन्द्रियों को निर्वृत्त करना, अर्थात् पांचों ही इन्द्रियों को अपने-अपने अयोग्य, अनुपयोगी विषयों से विरत दूर रखना इन्द्रिय संयम है । यथा शक्ति स्थावर जीवों का और सर्वथा त्रस जीवों की रक्षा करना प्राणी संयम है ॥ ३ ॥
तिसंज्झभाचरे पूया चउविंसई संथवं । उत्तिमायारणं उत्तं जवझाणत्थु इच्छेज्जं ॥ ४ ॥ त्रिसंध्यमाचरेत् पूजां चतुर्विंशति संस्तवं । उत्तमाचरणंप्रोक्तं, जपध्यानस्तु वांच्छितं ॥ ४ ॥ तीन संध्याओं में २४ तीर्थंकर की पूजा स्तुति करें । उत्तम आचरण से युक्त, जप ध्यान से इष्ट फल प्राप्त करें ॥ ४ ॥
A.XX
श्रावकों को प्रातःकाल, मध्याह्न समय और संध्याकाल अर्थात् तीनों संध्याओं में जिन भगवान की पूजा और चौबीस तीर्थकरों की स्तुति करना चाहिए। तथा इच्छानुसार यथा शक्ति, यथायोग्य जप महामंत्र का जप और ध्यान भी करना चाहिए। यह उत्तम आचरण कहा है || ४ ॥
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प्रायश्चित विधान 4
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