Book Title: Prayaschitt Vidhan
Author(s): Aadisagar Aankalikar, Vishnukumar Chaudhari
Publisher: Aadisagar Aakanlinkar Vidyalaya

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Page 75
________________ अक्कुदयादु तं सत्त पंचतिघडिगो अह । कालागुडाण-जो य, मज्झबिल्हा हवं ॥ ८ ॥ अर्को दयास्तमात्सप्त, पंच चिघटिकोऽथवा । कालोऽनुष्ठान योग्योऽयं, मध्यान्हेऽपि तथाभवेत् ॥ ८ ॥ सूर्य उदय व अस्त पर, घड़ी सात-पांच की होय है। योग्य काल का, अनुष्ठान मध्य में भी होय है ।। ८ ॥ सूर्य के उदय काल में तथा अस्तंगत समय में अर्थात् प्रातः और संध्या समय क्रम से सात, पाँच, तीन घड़ी पर्यंत सामायिकादि अनुष्ठान का योग्य समय निर्धारित माना है। इसी प्रकार मध्यान्ह काल में भी अनुष्ठान विधि का समय जानना चाहिए । प्रत्येक श्रावक को योग्य काल में ही कर्त्तव्य करना चाहिए। यथायोग्य द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव में की हुई क्रिया सफल होती है। उत्तम फल प्रदान करती है ॥ ८ ॥ कालस्सइक्कम जाई पंच मत सयं भजे । जइवि विसुद्धएंति तओविअण्डाणए ।। ९ ।। कालस्यातिक्राम जाति, पंचमंचं शतं जपेत् । यद्यपि विशुद्धयंति, ततोऽनुष्ठानमारमेत् ॥ ९ ॥ काल का अतिक्रमण होय, तो पंच मंत्र का पुष्पों से १०० जाप करें । तो भी विशुद्ध होकर, अनुष्ठान करें ।। ९ ।। नित्य नैमित्तिक उपादि अनुष्ठानों का यदि समय उल्लंघन हो जाय अर्थात् यथा समय न हो सके तो एक सौ आठ बार अपराजित मंत्र (पंच नमस्कार) का जाप करना चाहिए। इससे उस प्रमादजन्य दोष की निवृत्ति होती है । अर्थात् अतिचारादि दोष दूर होकर अनुष्ठानादि विधि शुद्धि को प्राप्त होती है। इस प्रकार शुद्धिकर पुनः क्रिया प्रारंभ करना चाहिए ॥ ९ ॥ कालस्सेग विहीणाणं, पूजाए परमेट्ठिणं । प्रायश्चित विधान- ७८

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