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आदावंते जपं कुर्यात्, मंत्रस्याष्टोत्तरशतं । द्विसंध्याचार विंशतो, शतोत्कुर्यात् जप क्रियां ॥ १२ ॥
पूर्व के जप के बाद, १०८ बार मंत्र का जाप करना चाहिए। दोनों संध्याओं में २० बार, १०० मंत्रों का जाप करना चाहिए ।। १२ ।। विधिरूप क्रियाओं के आदि (प्रारंभ) और अंत () में ए
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सौ आठ एक सौ आठ बार जाप करें। माला में एक सौ आठ मणियां और तीन मेरु के होते हैं तथा नौ कायोत्सर्ग के होते हैं इस प्रकार इक्कीस बार जप की क्रिया
करें ॥ १२ ॥
एस्सिं दिवसे कालं, तियद्वाणयणिट्ठियं । हव णव - कुंभगं महण्हाणं च कज्जए ॥ १३ ॥ एकस्मिन्दिवसे काल, प्रयानुष्ठान ह्यनिष्ठितं । स्नपयेन्नवति कुंभे, महास्नानं कार्येज्जिनं ॥ १३ ॥
एक दीन के तीनों काल में, हीन अनुष्ठान के होने पर । घी जल के नौ घड़ों से, जिनेन्द्र देव का अभिषेक करें ॥ १३ ॥
यदि एक दिवस के अनुष्ठान की हानि हो जाय तो उस शुद्धि के लिए प्रायश्चित्त रूप में श्री जिनेन्द्र भगवान के पावन प्रतिबिंब (प्रतिमा) का नब्बे कलशों से भक्ति पूर्वक महाभिषेक करना चाहिए ॥ १३ ॥ तथा
हामहं जिणंदाणं पंच मंडल मज्झओ ।
णिक्खेवे तिसय पुष्कं मूल मंतं भजे सुही ॥ १४ ॥
महामहं जिनेंद्राणां पंचमंडल मध्यतः ।
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विधाय त्रिशतं पुष्पे, र्मूलमंत्र जपेत् सुधीः ॥ १४ ॥ जिनेन्द्र देव को पंच मण्डल के, मध्य में विराजमान करें । तीन सौ पुष्पों से, महामूल मंत्र का जाप करें ॥ १४ ॥
प्रायश्वित्त विधान ८०
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