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... श्री वीतरामाय नमः ...
णमोत्थुणं गुरु पंच परमट्ठाण संट्टियं । पायच्छित विळि वोच्छे संखेवा गहचारिणा ॥१॥
नमस्कृत्यं गुरून पंच, परम स्थान संस्थितान् । प्रायश्चित विधिं वक्ष्ये, संक्षेपात् गृहचारिणां ॥१॥
पंच परम स्थान में, विद्यमान गुरु को नमन करें। संक्षेप में गृहस्थ को, प्रायश्चित्त विधि को कहूं ॥१॥
परम-उत्कृष्ट स्थान में स्थित् पंच परम गुरुओं को अर्थात् पंच परमेष्ठिओं कोलकार करके हाथों की पश्चिम विधालनानक ग्रंथ को संक्षेप से निरूपण करूँगा। आपली शादिसखाए कालीका हा भापरिशियान नामक प्रस्तुत ग्रंथ की रचना की प्रतिज्ञा की है।। १॥
णिच्चमित्तकायारे गिहि मुक्ते जिणेत्थूस। तत्वणिंच्च अणुठ्ठाणं तं विहिं गहचारिणा ॥२॥ नित्य-नैमित्तिकाचारे,-गृहीभुक्ते जिनोक्तेषु । तबनित्यमनुष्ठानं, प्राग-विधिं गृहचारिणां ॥२॥ जिन भक्ति सहित, गृहस्थ नित्य विशेष में प्रवृत्ति करे।
गृहस्थ अनुष्ठान विधि, तो नित्य पहले करे ॥२॥ श्रावकाचार की नित्यप्रति करने योग्य नैमित्तिक के विषय में जिनेन्द्र भगवान की वाणी में प्रथम विधि क्या है ? नित्य करने योग्य अनुष्ठान की विधि को निम्न प्रकार से करना आवश्यक है। प्रथम भक्षाभक्ष का विचार कर भोजनशुद्धि का विचार करें॥२॥
अरह यति सूरीय चारित्त सज्झ संजमो। वय पालण दाणंच अणुढेय गिहासमे ।। ३ ।।
प्रायश्चित विधान -७४