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ऐसे साधु को छेद प्रायश्चित्त दिया जाता है। मूलं याचितं एवं करसनी क होदि । अवरिमिय अवराहस्स पासत्यो सण- कुसील सच्छेदादि उव्वदृद्धियस्स होदि । अर्थात् अपरिमित अपराध करने वाला जो साधु पार्श्वस्थ, अवसन्न, कुशील और स्वच्छन्द आदि होकर कुमार्ग में स्थित हैं, उसे दिया जाता है।
प्रमादादन्यमुनि संबन्धिनमृषिं शत्रं गृहस्थं वा पर पाखण्डि प्रतिबद्ध चेतना चेतन द्रव्यं वा परस्त्रियं वा स्तेनयतां मुनीन् प्रहरतो वाऽन्यदप्पेवमादि विरुद्धाचरित माचरतो नवराच संहनन निवपरिवहस्य हृदधर्मिणो धीरस्य भव भीतस्य निजगुणनुपस्थानं प्रायश्चित्तं भवति । दयदिनत्तरोक्तान्दोषानाचरतः परगणोपस्थानं प्रायश्चित्तं भवति । अर्थात् प्रमाद से अन्य मुनि संबंधि ऋषि, विद्यार्थी, गृहस्थ वा दूसरे पाखण्डी के द्वारा रोके जाने पर भी चेतनात्मक वा अचेतनात्मक द्रव्य, अथवा परस्त्री आदि को चुराने वाले, मुनियों को मारने वाले, अथवा और भी ऐसे ही विरुद्ध आचरण करने वाले, परन्तु नौ वा दस पूर्वी के जानकार, पहले तीन संहनन को धारण करने वाले परीषहों को जीतने वाले, धर्म में दृढ़ रहने वाले, धीर-वीर और संसार से डरने वाले, मुनियों के निजगणानुपस्थान नामका प्रायश्चित्त होता है। जो अभिमान से उपरोक्त दोषों को करते हैं, उनके परगणानुपस्थापना प्रायश्चित्त होता है।
तीर्थंकर गणधर गणी प्रवचन संघासादन कारकस्य नरेन्द्रविरुद्धाचरितस्य राजानमभिमतामात्यादीनां दत्त दीक्षस्य नृपकुल वनिता सेवितस्यैव माघन्य दोषश्च धर्मदूषकस्य पारंचिकं प्रायश्चित्तं भवति । अर्थात् जो मुनि तीर्थकर, गणधर आचार्य और शास्त्र व संघ आदि की झूठी निंदा करने वाले हैं, विरुद्ध आचरण करते हैं, जिन्होंने किसी राजा को अभिमत ऐसे मंत्री आदि को दीक्षा दी है जिन्होंने राज कुल की स्त्रियों का सेवन किया है, अथवा ऐसे अन्य दोषों के द्वारा धर्म में दोष लगाया है, ऐसे मुनियों के पारंचिक प्रायश्चित्त होता है।
गत्वा स्थितस्य मिथ्यात्वं यदीक्षा ग्रहणं पुनः । तच्छूद्रानमितिख्यातमुपस्थापन मित्यपि ॥ ५७ ॥ जो साधु सम्यग्दर्शन को छोड़कर मिथ्यात्व में प्रवेश कर गया है। उसको पुनः दीक्षा रूप यह प्रायश्चित्त दिया जाता है। इसका
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प्रायश्चित्त विधान ६८
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