Book Title: Prayaschitt Vidhan
Author(s): Aadisagar Aankalikar, Vishnukumar Chaudhari
Publisher: Aadisagar Aakanlinkar Vidyalaya

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Page 60
________________ Manikamsinalinimillamma अनगार धर्मामृत में इसकी निरूक्ति पूर्वक ऐसा निर्देश किया है कि प्रायोलोकस्तस्य चित्तं मनस्तच्छुद्धिकृत्क्रिया। प्राये तपसि वा चित्तं निश्चयः तन्निरुच्यते ॥ ३७॥ प्रायः शब्द का अर्थ लोक और चित्त शब्द का अर्थ मन होता है। जिसके द्वारा साधर्मी और संघ में रहने वाले लोगों का मन अपनी तरफ से शुद्ध हो जाय उस क्रिया या अनुष्ठान को प्रायश्चित्त कहते हैं। अथवा क्रोधादि स्वकीय भावों के अपने विभावभावों के क्षयादि की भावना में रहना और निजगुणों का चिंतन करना वह निश्चय से प्रायश्चित कहा है। उसी अमन अर्थले मा का जो उत्कृष्ट ज्ञान अथवा चित्त उसे जो आत्मा नित्य धारण करता है, उसे प्रायश्चित्त कहते हैं। बहुत कहने से क्या ? अनेक कर्मों के क्षय का हेतु ऐसा जो महर्षियों का उत्तम तपश्चरण वह सब प्रायश्चित्त जानना चाहिए। आत्म स्वरूप जिसका अवलंबन है, ऐसे भावों से जीव सर्व प्रकार के भावों का परिहार कर सकता है, इसलिए ध्यान सर्वस्व है। अथवा व्रत में लगे हुए दोषों को प्राप्त हुए यति जिससे पूर्व में किये पापों से निर्दोष हो जाय वह प्रायश्चित तप है। पुराने कर्मों का नाम क्षेपण, निर्जरा, शोधन, धावन, प्रच्छन (निराकरण), उत्क्षेपणा, छेदन (द्वैधीकरण) ये सब प्रायश्चित्त के नाम है। संसर्गे सति विशोधनातदुभयम् । अर्थात् आलोचना और प्रतिक्रमण इन दोनों का संसर्ग होने पर दोष का शोधन होने के लिए तदुभव प्रायश्चित्त है अथवा सगावदाह गुरुणमालोचिय गुरु सक्खिया अवहारादो पडिणियत्ति उभयं णाम पायच्छित्तं । अर्थात् अपने अपराध की गुरु के सामने आलोचना करके गुरु की साक्षी पूर्वक अपराध से निवृत्त होना उभय नाम का प्रायश्चित्त है । पुनर्दीक्षा प्रापणमुपस्थापना । अर्थात् पुनः दीक्षा देना उपस्थापना प्रायश्चित्त है । मिच्छत्तं गंतूण हियस्स महन्वयाणि घेत्तूण अतागम पयत्य सद्दहण चेव (सदहण) पायच्छित्तं । अर्थात् मिथ्यात्व को प्राप्त होकर स्थित हुए जीव महाव्रतों को स्वीकार कर आप्त आगम और पदार्थों का श्रद्धान करने पर श्रद्धान नामका प्रायश्चित्त होता है। .. प्रायश्चित्त तप के अतिचार आकंपित अनुमानित वगैरह दोष इस तप के अतिचार हैं। ये अतिचार होने पर इसके विषय में मन में ग्लान करना। अज्ञान से, . L I KzK.xx..z.ruitit प्रायश्चित्त विधान - ६३

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