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प्रमाद से, तीव्र कर्म के उदय से और आलस्य से मैने यह अशुभ कर्म का बंध करने वाला कर्म किया है. मैने यह दुष्ट कर्म किया है ऐसा उच्चारण करना प्रतिक्रमण के अतिचार है । आलोचना और प्रतिक्रमण के अतिचारों को उभयातिचार कहते हैं। जिस-जिस पदार्थ के अवलंबन से अशुभ परिणाम होते हैं उनको त्यागना अथवा उनसे अलग होना यह विवेक तप है। अतिचार को कारणीभूत ऐसे द्रव्य क्षेत्र और कालादिक से पृथक करना अर्थात् दोषोत्पादक द्रव्यादिकों का मन से अनादर करना यह विवेक है। शरीर व आहार में मन एवं वचन की प्रवृत्तियों को हटाकर ध्येय वस्तुओं की ओर एकाग्रता से चित्त का निरोध करने को व्युत्सर्ग कहते हैं। काय का उत्सर्ग करके ध्यान पूर्वक एक मुहूर्त, एक दिन, एक पक्ष और एक महीना आदि काल तक स्थित रहना व्युत्सर्ग नामका प्रायश्चित्त है। शरीर से ममता हटाना व्युत्सर्ग तप है परन्तु ममत्व दूर नहीं करना यह व्युत्सर्ग तप का अतिचार है।
पक्षमासादि विभागेन दूरः परिवर्जनं परिहारः । अर्थात् पक्ष, महीना आदि के विभाग से संघसे दूर रखकर त्याग करना परिहार प्रायश्चित्त है । अपरिस्रव अर्थात् आम्रव से रहित, श्रुत के रहस्यों को जानने वाले, वीतराग और रत्नत्रय में मेरू के समान स्थिर ऐसे गुरुओं के सामने अपने दोषों का निवेदन करना व्यवहार आलोचना नामक प्रायश्चित्त है। जो वर्तमान काल में शुभाशुभ कर्म रूप अनेक प्रकार ज्ञानावरणादि विस्तार रूप विशेषों के लिए हुए उदय आया है उस दोष को जो ज्ञानी अनुभव करता है, वह आत्मा निश्चय से आलोचना स्वरूप है। उत्तरोत्तर धर्मापेक्षया वित्रामाभावानावस्था । अर्थात् उत्तर-उत्तर धर्मों अनेकांत की कल्पना बढ़ती चली जाने से उसको अनवस्था दोष कहते हैं। असंयत के प्रति की जुगुप्सा ही छेद है। संयम का छेद दो प्रकार का है बहिरंग और अंतरंग । उसमें मात्र काय चेष्टा संबंधी बहिरंग है और उपयोग संबंधी अंतरंग है। अशुद्धोपयोग अंतरंग छेद है और परिणामों का व्यपरोपण बहिरंग छेद है । अनिगहित वीर्यस्य मार्गा विरोधि काय क्लेशस्तपः । अर्थात् शक्ति को न छिपाकर मोक्षमार्ग के अनुकूल शरीर को क्लेश देना यथा शक्ति तप है। पक्षमासादि विभागेन दूरतः
सापागालाALAM प्रायश्चित्त विधान - ६४
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