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इस प्रामाणिकता से ग्रन्थ सर्व मान्य और जिन वचन में स्तुत्य है। उन्होंने धर्म की स्थिरता व्रत की स्थिरता करने का बहुत बड़ा कार्य किया है । इसकी आवश्यकता की पूर्ति कर सम्यग्दर्शन, ज्ञान, चारित्र के मार्ग को प्रशस्त किया है। हालांकि इसमें श्रावकोचित प्रायश्चित्त का ही कथन पाया जाता है। फिर ज्ञानी जन एकदेश गृहस्थों को जो प्रायश्चित्त होता है उससे दूना महाव्रतियों को
है तथा शालाले शानियों को और भी विशेष का होता है। यह प्रायश्चित्त न तो स्वयं लेना चाहिए और न हर एक से लेना चाहिए और न शास्त्र में लिखा लेना चाहिए या सेगी लेना नाहिए। मिना माता का ज्ञान है अभ्यास है अनुभव है वही प्रायश्चित्त कार्यकारी अर्थात् दोषो का नाशक होता है। अन्य जो देते हैं और अन्य से जो प्रायश्चित्त लिया जाता है वह प्रायश्चित्त दोषों को तो नष्ट करता ही नहीं है बल्कि दोषों की वृद्धि करता है इतना ही नहीं सम्यग्दर्शन, ज्ञान, चारित्र, तपकी आराधना का भी नाशक होता है। इसलिए योग्य गुरु से ही प्रायश्चित्त लेकर आत्म विशुद्धि करनी चाहिए।
संभीक्ष्दय व्रत मदियमात्तं पाल्यं प्रयत्लतः।
छिन्नं दर्यात्प्रमादाद्वा प्रत्यवस्थाप्य भेजस ।। ७८ ।। द्रव्य क्षेत्रादि को देखकर व्रत लेना चाहिए प्रयत्न पूर्वक उसको पालना चाहिए। फिर भी किसी मद के आवेश से या प्रमाद से व्रत छिन्न हो जाये तो उसी समय प्रायश्चित्त लेकर पुन: धारण करना चाहिए। - सा. २/७८
मूलोत्तर गुणाः संति देशतो वेभ वर्तिनां ।
तथा नगारिणां न स्युः सर्वतः स्युः परेऽचते ॥ पंचाध्यायी कारने उत्तरार्द्ध श्लोक ७२२ में साधु कोपूर्ण और श्रावक कोएकदेश . होते हैं। जैसे गृहस्थों के मूलगुण और उत्तरगुण होते हैं वे वैसे मुनियों के एकदेश रूपसे नहीं होते हैं किन्तु वे मूलगुण तथा उत्तरगुण सर्वदेश रुपसे ही होते हैं।
मूलोत्तरगुणेलीषाद्विशेष व्यवहारतः। साधूपासक सेशुद्धिं वक्ष्ये संक्षिप्य तद्यथा ॥२॥ Enwww.
प्रायश्चित विधान - ५६