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जिन संहिता में लिखा है कि जो कोई पुरुष अनेक प्रकार के अनर्थ उत्पन्न करने वाले जिन पूजा संबंधी दोषों को शांत करने के लिए योग्य प्रायश्चित्त नहीं करता तो वह पुरुष अपने नगर से देश से राष्ट्र से सबसे भ्रष्ट हो जाता है। इसलिए पापों की शांति के लिए प्रायश्चित् अवश्य करना चाहिए। ....... .: ... यदि किसी मुनि के अज्ञान या प्रमाद से पांच महाव्रतादिक अट्ठाईस मूलगुणों में या अन्य किसी क्रिया चरण में किसी प्रकार का अतिचार या अनाचार लगा जाये तो वे मुनिराज अपने गुरु आचार्य के निकट जाकर अपने किये हुए दोषों को प्रगट करते हैं। उसके बाद आचार्य जो प्रायश्चित दे उसे वे अपने दोष दूर करने के लिए बड़े हर्ष के साथ स्वीकार करते हैं। गुरु के द्रिये हुए प्रायश्चित्त में किसी प्रकार का विवाद नहीं करते किंतु उसको यथोचित् रीति से पालकर शुद्ध होते हैं। इसी प्रकार उत्तरगुणों के संबंध में जानना चाहिए। तथा यदि कोई जैनी गृहस्थ श्रावक या श्राविका के मलगुण अथवा उत्तरगुणों में किसी कारण से अनाचार या हीनाचरण करने में आ जाय तो उस दोष को दूर करने के लिए प्रायश्चित्त करना चाहिए।
रिसि साक्य मूलुत्तर गुणादिचारे प्रमाद दव्वेहि। जो दे प्रायच्छितं णि सुणह कमसो जहाजोग्गं॥१॥ ऋषि श्रावक मूलोत्तर गुणतिचारे प्रमाददव्वेहिं।
जाते प्रायच्छित्तं निश्रृणुत क्रमशो यथायोग्य ।। २।(छे. पि.) प्रमाद और हर्ष से ऋषि और श्रावक के मूलगुण और उत्तर गुण में अतिचार होने पर क्रम से यथायोग्य प्रायश्चित्त जो है वह सुनो ।
बंसमणाणं वृत्तं पायच्छित्तं तह ज्जयाचरणं । ... ते सिंचव पडतं तं समणीणंपिणामव्वं ॥ २८९॥ ........ णवरि पर्यायछेदो मूलट्ठाणं तहेव परिहारो। - दिणपड़िया वि य तीनं तियालजोगो यणेवत्थि ॥ २९० ॥
प्रायश्चित्त विधान - ५९