________________
संसार शरीर और भोगों से संवेग धारण करते रहते हैं समाज आगम का चितवन करते रहते हैं। वे मुनिराज अपनी इच्छानुसार नगर, पत्तन, खेट, पर्वत, गाँव, जंगल, वन आदि सुन्दर असुंदर समस्त स्थानों में विहार करते रहते हैं। उस समय यद्यपि वे मार्ग को देखते हैं तथापि स्त्रियों के रूप आदि को देखने में अंधे ही बने रहते हैं। यद्यपि व चतुर मुनि श्रेष्ठ ताथों को बंदना के लिए विहार करते हैं, चलते हैं तथापि कुतीर्थों के लिए वे लंगड़े के समान ही बने रहते हैं, यद्यपि वे श्रेष्ठ कथाओं को करते हैं तथापि विकधाओं को कहने के लिए गूंगे बन जाते हैं। यद्यपि उपसर्गों को जीतने के लिए वे शूरवीर हैं तथापि कर्मबंधन करने के लिए वे कायर बन जाते हैं । यद्यपि अपने शरीर आदि से वे अत्यन्त निस्पृह है तथापि मुक्ति को सिद्ध करने के लिए वे तीव्र लालसारखते हैं। यद्यपि वे सर्वज्ञ अप्रतिबद्ध है किसी के बंधे हुए या किसी के अधीन नहीं है तथापि वे जिन शासन के सदा अधीन रहते हैं। ऐसे वे प्रमाद रहित मुनिराज मोह का ममत्व का सर्वथा त्याग करने के लिए तथा अशुभ कार्य और परीषहों को जीतने के लिए बहुत सी पृथ्वी पर विहार करते हैं। इस प्रकार सिंह के समान अपनी निर्भय वृत्ति रखने वाले और पाप रहित मार्ग में चलने वाले इन मुनियों के विहार शुद्धि कही जाती है। जो मुनि मूलाचार पूर्वक नहीं चलते उनके लिए विहार शुद्धि कभी नहीं हो सकती।
जो जितेन्द्रिय मुनिराज तपश्चरण योग और शरीर की स्थिति के लिए बेला, तेला के बाद पारणा के दिन, एक पक्ष के उपवास के बाद पारणा के दिन अथवा महीना, दो महीना के उपवास के बाद पारणा के दिन योग्य घर में जाकर कृत कारित अनुमोदना आदि के समस्त दोषों से रहित या अपना समस्त दोषों से रहित अत्यन्त, शुद्ध आहार, भिक्षावृत्ति से लेते हैं उसको भिक्षा शुद्धि कहते हैं। वे मुनिराज केवल मोक्ष प्राप्त करने के लिए सद् गृहस्थों के द्वारा योग्य काल में विधि पूर्वक पाणि पात्र में दिया हुआ मन वचन काय और कृत कारित अनुमोदना की शुद्धता पूर्वक ख्यालीस दोषों से रहित शुद्ध आहार खड़े होकर करते हैं। वे मुनिराज विष मिले हुए अन्न के समान सदोष आहार को छोड़ देते हैं दूर से आये हुए आहार को छोड़ देते हैं। जिसमें कुछ शंका उत्पन्न हुई है उसको भी छोड़ देते
LALAMALAMALAKAR
प्रायश्वित विधान - ४६