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यह कारण है समस्त अपवित्र पदार्थों की खानि है पवित्र पदार्थों को भी अपवित्र करने वाला है भूख-प्यास, काम-क्रोध रूपी अग्नि में सदा जलता रहता है, जन्म मरण रूप संसार को बढ़ाने वाला है। राग-द्वेष से भरा हुआ है दुर्गंध और अशुभ कर्मों का कारण है तथा और भी अनेक महादोषों का मूल कारण है ऐसे शरीर को देखते हुए वे मुनिराज निरंतर उसी रूप से चिंतवन करते हैं तथा अनंत गुणों का समुद्र ऐसे अपने को उस शरीरको भिन्न मानते हैं। शरीर के सुख से विरक्त हुए वे मुनिराज उस शरीर में राग कैसे कर सकते हैं ? अपने शरीर से या अन्य पदार्थों से उत्पन्न हुए चे भोग चारों गति के कारण है, संसार के समस्त दुःखों की खानि है महा पाप उत्पन्न करने वाले हैं विद्वान लोग सदा इसकी निंदा करते हैं, दाह दुख और अनेक रोगों के ये कारण हैं, पशु और ग्लेच्छ लोग ही इनका सेवन करते हैं निंद्य कर्मों से ये उत्पन्न होते हैं। इस प्रकार शत्रु के समान इन भोगों की इच्छा से वे मुनिराज कभी नहीं करते हैं। ये बंधु वर्ग भी मोह रूपी शत्रु की संतान है पाप के कारण है, धर्म को नाश करने वाले हैं और अत्यन्त कठिनता से छोड़े जा सकते हैं। ऐसे बन्धुवर्ग में वे मुनिराज कभी स्नेह नहीं करते। जो मुनिराज इस प्रकार स्वयं निर्मल आचरणों का पालन करते हैं और अन्य पदार्थों में कभी राग नहीं करते ऐसे मुनिराजों के उज्झन नाम की शुद्धि होती है।
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चतुर मुनि कुमार्ग को नाश करने के लिए और धर्म की सिद्धि के लिए सदा ऐसे वचन बोलते हैं जो जिन शास्त्रों के विरुद्ध न हो अनेकांत भव के आश्रय से ही एकांत मत से सर्वथा दूर हो यथार्थ हो समस्त जीवों का हित करने वाले हो परिमित हो और सारभूत हो । ऐसे वचनों का कहना उत्तम या वाक्य शुद्धि कहलाती है । जो वचन विनय से रहित है धर्म से रहित हैं विरुद्ध है और जिनके कहने का कोई कारण नहीं है ऐसे वचन दूसरों के द्वारा पूछने पर या बिना पूछे वे मुनिराज कभी नहीं बोलते हैं। यद्यपि वे मुनिराज अपने नेत्रों से अनेक प्रकार के अनर्थ देखते हैं कानों से बड़े-बड़े अनर्थ सुनते हैं, अपने हृदय में सार असार समस्त पदार्थों को जानते हैं तथापि वे साधु इस लोग में गूंगे के समान सदा बने रहते हैं वे कभी किसी की जिन्दा नहीं करते और न किसी की स्तुति करने वाली बात कहते
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प्रायश्चित विधान ५०