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लगाये रहते हैं उन्हीं सज्जन मुनियों के ज्ञान शुद्धि कही जाती है अन्य प्रमादी पुरुषों के ज्ञान शुद्धि कभी नहीं हो सकती। ___ अपने शरीर में प्रक्षालन आदि का संस्कार करना भी स्त्रियों में स्नेह उत्पन्न करने वाला है मोह रूपी शत्रु को उत्पन्न करने वाला है और अत्यन्त अशुभ है। इसलिए चतुर मुनिराज शरीर का संस्कार कभी नहीं करते हैं तथा किसी भी परिग्रह में किसी समय भी ममत्व भाव धारण नहीं करते ज्ञान को आचार्य लोग उज्झन शुद्धि कहते हैं। मोह से रहित वेमुनिराज मुख और दांतों को न कभी धोते हैन कुल्ला करते हैं, न धिसते हैं, न पैर धोते हैं, न नेत्रों में अंजन लगाते हैं शाहर को धूप में सुखाते हैं, न स्नान करते हैं, न शरीर की शोभा बढ़ाते हैं न वमन विरेचन करते हैं तथा और भी ऐसे शरीर के संस्कार वे मुनिराज कभी नहीं करते हैं। अपने कर्मों के विपाक को जानने वाले वे मुनिराज पहले के असाता कर्म के उदय से अत्यन्त असह्य और असाध्य ऐसे कोढ़ ज्वर वायु का विकार या पित्त का विकार आदि सैकड़ों रोग उत्पन्न हो जाये तो वे मुनि अपने पापों का नाश करने के लिए उस दुख को सहते रहते हैं उन रोगों को दूर करने के लिए औषधि आदि के द्वारा कभी प्रतिकार नहीं करते तथा न कभी प्रतिकार करने की इच्छा ही करते हैं। निस्पृह वृत्ति को धारण करने वाले उन मुनिराजों का समस्त शरीर अनेक असाध्य रोगों की वेदना से व्याप्त हो रहा है तो भी वे अपने मन में खेद खिन्न नहीं होते हैं वे पहले के ही समान स्वस्थ बने रहते हैं उन रोगों से उनके मन में कभी विकार उत्पन्न नहीं होता है । वे मुनिराज समस्त क्लेशों को दूर करने वाले और जन्म मरण रूपी समस्त रोगों को नाश करने वाले रत्नत्रय को तथा तपश्चरण को सेवन करते रहते हैं रत्नत्रय और तप के सिवाय के अन्य किसी का सेवन नहीं करते। यह शरीर रोग रूपी सो का बिल है अत्यन्त निंद्य है यमराज के मुख में ही उसका सदा निवास है यह शुक्र रुधिररूपी बीज से उत्पन्न हुआ है सप्त धातुओं से भरा हुआ है करोड़ों अरबों कीड़ों से भरा हुआ है अत्यन्त भयानक है अत्यन्त प्रणित है मलमूत्र आदि पदार्थों से भरा हुआ है विष्ठा आदि अपवित्र पदार्थों का पात्र है पांचो इन्द्रिय रूपी चोर इसमें निवास करते हैं समस्त दुःखों का
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MLILAxr.xxxALLL प्रायश्विा विधान - ४१