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हैं । उद्दिष्ट और जाने हुए आहार को भी छोड़ देते हैं और स्वयं बनाये हुए अन्न भी छोड़ देते हैं। वे निस्पृह मुनि अनुमोदना किये हुए आहार को भी छोड़ देते हैं तथा मौन धारण कर छोटे बड़े सब घरों की पंक्तियों में घूमते हुए आहार ग्रहण करते हैं। जिव्हा आदि समस्त इंद्रियों को कीलित करने में ( वश करने में ) सदा उद्यत रहने वाले वे मुनिराज पारणा के दिन बिना याचना किया हुआ ठण्डा गर्म सूखा - रूखा सरस लवण सहित, लवण रहित, स्वादिष्ट स्वाद से रहित ऐसा जो शब्द आला मिल पाता है उसको ही बिना स्वाद के ग्रहण कर लेते हैं। जिस प्रकार गाड़ी को चलाने के लिए पहिये में तेल लगाते हैं उसी प्रकार प्राणों को स्थिर रखने के लिए वे मुनिराज थोड़ा सा आहार लेते हैं। वे मुनिराज धर्म के लिए प्राणों की रक्षा करते हैं और मोक्ष के लिए धर्म का साधन करते हैं। वे मुनिराज सपा से चले आए इस प्रकार के लाभ की सिद्धि के लिए तथा आत्म शुद्ध करने के लिए आहार लेते हैं स्वाद के लिए आहार नहीं लेते । यदि अच्छा सुन्दर आहार मिल जाय तो वे संतुष्ट नहीं होते और यदि आहार न मिले या मिले भी तो अशुभ अन्न मिले तो वे मुनिराज अपने मन में कभी खेद खिन्न नहीं होते हैं। मुझे दो इस प्रकार के दीन वचन वे प्राण नाश होने पर भी कभी नहीं करते तथा श्रेष्ठ मौनव्रत को धारण करने वाले वे मुनिराज दान के लिए कभी किसी की स्तुति भी नहीं करते। जो आहार ग्रहण करने के योग्य नहीं है ऐसे अग्नि में बिना पकाया हुआ और इसीलिए अत्यन्त दोष उत्पन्न करने वाले कंद बीज फल आदि को ग्रहण करने की कभी इच्छा भी नहीं करते हैं। वे धीर वीर मुनिराज रात्रि में रखे हुए अन्न को कभी नहीं ग्रहण करते, तथा उसी दिन के बनाये हुए परन्तु स्वाद से चलित हुए अन्न को भी कभी ग्रहण नहीं करते हैं। आत्मा के स्वरूप को जानने वाले वे मुनिराज अपने व्रतों की शुद्धि के लिए आहार के दोषों से सदा डरते रहते हैं और निर्दोष आहार को ग्रहण करके भी प्रतिक्रमण करते हैं। इस प्रकार जो मुनिराज एषणा शुद्धि पूर्वक यत्नाचार पूर्वक आहार ग्रहण करते हैं उन्हीं के यह भिक्षा शुद्धि होती है अन्य किसी के नहीं।
ज्ञान रूपी नेत्रों को धारण करने वाले और दान के अभिमान से सर्वथा रहित
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प्रायश्चित विधान - ४७