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उत्तम विहार शुद्धि कहते हैं, जो मुनि जीवों की योनि, जीवसमास, सूक्ष्मकाय, बादरकाय आदि जीवों को अपने ज्ञान से जानकर समस्त जीवों पर कृपा करने में तत्पर रहते हैं, जो ज्ञानरूपी नेत्रों को धारण करते हैं और वायु के समान परिग्रह रहित हैं ऐसे मुनि मन, वचन, काय से प्रयत्न पूर्वक पापों का त्याग करते रहते हैं। वे मुनि समस्त पृथ्वी पर विहार करते हुए भी किसी भी कारण से एकेन्द्रिय
आदिक जीवों की बाधा या विराधना न तो स्वयं करते हैं और न कभी किसी से कराते हैं। वे मुनिराज तृण पत्र प्रवाल कोमल पत्ते हरे अंकुर, कंद बीज फल आदि समस्त वनस्पति कायिक जीवों को पैर आदि से न तो कभी मर्दन करते हैं, न मर्दन कराते हैं, न उनको छेदन करते हैं, न दिखाते हैं, न स्पर्श करते हैं, न स्पर्श कराते है और न उनको पीड़ापहुंचाते हैं न पहुंचवात है, वे चतुर मुनि न तो ठोकपीट कर पृथ्वीकायिक जीवों को बाधा पहुँचाते हैं न पहुँचवाते हैं। प्रक्षालनादि के द्वारा जलकायिक जीवों को बाधा पहुँचाते हैं न पंखा आदि से हवा कर वायुकायिक जीवों को बाधा पहुँचाते हैं और न गमन करने बैठने या सोने में त्रस जीवों को बाधा पहुंचाते हैं। वे चतुर मुनि मन, वचन, काय और कृत कारित अनुमोदना से इन समस्त जीवों को कभी भी पीड़ा या विराधना नहीं पहुँचाते। उन मुनिराज के श्रेष्ठ हाथों में डण्डा आदि हिंसा का कोई उपकरण नहीं होता वे सर्वथा मोह रहित होते हैं और संसार रूपी भयानक समुद्र में पड़ने से सदा शकित
और भयभीत रहते हैं। यदि उनके पैर में कांटा लग जाय या तीक्ष्ण पत्थर के टुकड़ों की धार से छिद जाय और उनसे उनको पीड़ा होती हो तो भी वे बुद्धिमान मुनि अपने मन में कभी क्लेश नहीं करते हैं। क्लेश से वे सदा दूर ही रहते हैं। वे मुनिराज चर्या परिवह रूपी शत्रुओं को जीतने के लिए सदा उद्योग करते रहते हैं, तथा मेरा यह आत्मा भयानक रूप चारों गतियों में चिरकाल से परिभ्रमण करता रहता है अथवा भयानक नरकादिक योनियों में चिरकाल से परिभ्रमण करता रहा है। यह मेरे आत्मा का परिभ्रमण अत्यन्त निन्ध है, समस्त दुःखों की खानि है
और कर्म के अधीन है । इस प्रकार वे मुनिराज अपने आत्मा के परिभ्रमण को निरंतर चिंतवन करते रहते हैं। अत्यन्त निराकुल हुए वे मुनिराज अपने हृदय में
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प्रायश्चित विधान-४५