Book Title: Prayaschitt Vidhan
Author(s): Aadisagar Aankalikar, Vishnukumar Chaudhari
Publisher: Aadisagar Aakanlinkar Vidyalaya

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Page 41
________________ XXX के वचनों में क्रीड़ा करते हुए भयानक गुफाओं में या कंदराओं में ही निवास करते हैं। वे महापुरुष रूपी सिंह मुनिराज अपने ध्यान की सिद्धि के लिए सिंह, बाघ, सर्प और चोर आदि के द्वारा कापुरुष या भयभीत मनुष्यों को अत्यन्त भय उत्पन्न करने वाले श्मसान कंदरा आदि प्रदेशों में धीर-वीर महापुरुषों के द्वारा सेवन की हुई वसतिका में रहते हैं। अत्यन्त निर्भय और नरसिंह वृत्ति को धारण करने वाले महामुनिराज रात्रि में पहाड़ों की गुफाओं आदि अत्यन्त एकांत स्थान में रहते हुए तथा सिंह सर्प बाघ आदि अत्यन्त दुष्ट जीवों के भयानक और भीषण शब्दों को अत्यन्त समीप में ही सुनते हुए भी अपने ध्यान से रंचमात्र भी चलायमान नहीं होते हैं। पर्वत के समान वो निश्चल ही बने रहते हैं। करोड़ों महा उपद्रव होने पर भी अपने मन में कभी चंचलता धारण नहीं करते हैं। ऐसे चतुर मुनिराज भगवान जिनेन्द्र देव की आज्ञा पर अटल श्रद्धान रखते हुए पर्वतों की गुफाओं में ही निवास करते हैं। संध्यान और अध्यन में रहने वाले तथा रात-दिन जागने वाले और प्रमाद रहित जितेंद्रिय वे मुनिराज निद्रा के वश में नहीं होते। वे मुनिराज पहाड़ों पर ही पर्यकासन, अर्धपर्यंकासन या उत्कट बीरासन धारण कर या हाथी की सूंड के समान आसन लगाकर अथवा मगर के मुख का सा आसन लगाकर अथवा कायोत्सर्ग धारण कर या अन्य किसी आसन से बैठकर अथवा एक से लेटकर अथवा अन्य कठिन आसनों को धारण करने वाले वज्रवृषभ नाराच संहनन को धारण करने वाले और मोक्षमार्ग में निवास करने वाले वे मुनिराज अपने श्रेष्ठ ध्यान की सिद्धि के लिए सैकड़ों उपसर्ग आ जाने पर, अग्नि लग जाने पर तथा महा परिषहों के समूह आ जाने पर भी भयानक जीवों से भरे हुए भयंकर और अत्यन्त घोर दुष्कर वन में निवास करते हैं । इस प्रकार जो वीतराग मुनि अत्यन्त शुद्ध और ऊपर कहे अनुसार विषम वसति का आश्रय लेते हैं उन्हीं के वसतिका शुद्धि होती है। स्वतंत्र विहार करने वाले एकल विहारी मुनिराज सूर्य उदय के होने के बाद तथा सूर्य अस्त होने के पहले प्रासुक मार्ग में केवल धर्म की प्रवृत्ति के लिए गमन करते हैं तथा आगे की चार हाथ भूमि अपने दोनों नेत्रों से देखते हुए ही गमन करते हैं। उन मुनियों के ऐसे शुद्धागमन करने को IIII 211111LLA... JAINI ... प्रायश्चित विधान- ४४

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