Book Title: Prayaschitt Vidhan
Author(s): Aadisagar Aankalikar, Vishnukumar Chaudhari
Publisher: Aadisagar Aakanlinkar Vidyalaya

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Page 45
________________ ऐसे मुनिराज मोक्ष प्राप्त करने के लिए काल शुद्धि, क्षेत्र शुद्धि आदि समस्त शुद्धियों के साथ-साथ विनय पूर्वक एकाग्रचित्त से अंगपूर्व या सूत्रों का जो पठन-पाठन करते हैं या पाठ करते हैं उसको सज्जन पुरुष शान शुद्धि कहते हैं। जो मुनिराज महातपश्चरण के बोझ से दबे हुए हैं। हद चारित्र को धारण करने वाले हैं, जिनका चमड़ा हड्डी आदि समस्त शरीर सूख गया है जो अपने मन में विश्वास और प्रसिद्धि आदि को भी कभी नहीं चाहते, जो महा अष्टांग निमित्त शास्त्रों के जानकार पर आगमा समुहले गायी है द्वारा के अर्थ को जानने वाले हैं जो अपनी बुद्धि की प्रबलता से अंगों के अर्थ को ग्रहण करने और धारण करने में समर्थ है जो अत्यन्त चतुर है पदानुसारी बीज बुद्धि कोष्ठ बुद्धि सोमिन्त्र बुद्धि आदि सातों प्रकार की बुद्धियों से सुशोभित है जो महाज्ञानी है, शास्त्र रूपी अमृत पान से जिन्होने अपने कानों को अत्यन्त श्रेष्ठ बना लिया है जो सदा बुद्धिमान और महा चतुर है मतिज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान और मनापर्ययज्ञान इन चारों ज्ञानों से सुशोभित हैं जो समस्त पदार्थों के सार को जानने वाले और जो अपने मन को सदा श्रेष्ठ ध्यान में ही लीन रखते हैं ऐसे महाज्ञानी पुरुष मन वचन काय की शुद्धता पूर्वक समस्त अंगों को स्वयं पढ़ते हैं, सजनों को पढ़ाते हैं और अनेक अर्थों का चितवन करते रहते हैं। इस प्रकार इस संसार में ज्ञानी पुरुषों की प्रतिदिन प्रवृत्ति रहती है। वे मुनिराज पधापि समस्त अंगों को जानते हैं तथापि वे किंचित भी उसका अभिमान नहीं करते तथा उससे अपनी प्रसिद्धि या बड़ापन पूजा आदि की भी कभी इच्छा नहीं करते। यह जिनवाणी रूपी अमृत का पान करना जन्म मृत्यु रूपी विष को नाश करने वाला है समस्त क्लेशों को दूर करने वाला है और पंचेन्द्रियों की तृष्णा रूपी अग्नि को बुझाने के लिए मेघ के समान है। यही समझकर वे मुनिराज जन्म मरण रूपी दाह को शांत करने के लिए और मोक्ष सुख प्राप्त करने के लिए स्वयं जिनवाणी रूपी अमृत का पान करते रहते हैं दूसरों को उसका पान कराते रहते हैं और उस लोक में उस जिनवाणी रूपी अमृत का विस्तार करते रहते हैं जो मुनिराज निरंतर ही महाज्ञान भय अपने उपयोग के वशीभूत है अर्थात् जो निरंतर झान में ही अपना उपयोग nirutakkart-HIKARI प्रायश्चित विधान • ४८ Misces मया

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