Book Title: Prayaschitt Vidhan
Author(s): Aadisagar Aankalikar, Vishnukumar Chaudhari
Publisher: Aadisagar Aakanlinkar Vidyalaya

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Page 39
________________ धन, योवन आदि से मोह का त्याग कर देते हैं और विशुद्ध जिनलिंग धारण कर लेते हैं वह मुनियों की लिंग शुद्धि कहलाती है जिन मुनियों के समस्त शरीर पर पसीने का व पसीने में मिली हुई धूली का मल लगा हुआ है, परन्तु जो कर्म मल से सर्वथा दूर रहते हैं, जो अत्यन्त चतुर है, अत्यन्त तीव्र शीत व उष्णता के संताप से जले हुए वृक्ष के समान हो रहे हैं, जो काम और भोग से सदा विरक्त रहते हैं, अपने शरीर का कभी संस्कार नहीं करते जिन्होंने दिगम्बर मुद्रा धारण कर रखी है जो धीर-वीर है समस्त परिग्रह से रहित है, जन्म मरण और बुढ़ापे से जो अत्यन्त दुखी है, जो संसार रूपी समुद्र में पड़ने से बहुत डरते हैं जिनके नेत्र मन और मुख में कभी विकार उत्पन्न नहीं होता जो श्रेष्ठ पीछी धारण करते हैं, जो महाऋषि है, जो लिंग शुद्धि को धारण कर ही सदा अपनी प्रवृत्ति करते हैं, जो मोह रहित है, अंहकाररहित है, जो धर्म ध्यान या शुक्ल ध्यान में सदा लीन रहते हैं, जो संसार रूपी अग्नि के दाह को शांत करने के लिए मन, वचन, काय की शुद्धता पूर्वक चारह अंग और बौदहपूर्व रूपी अमृत से भरे हुए अपने अंतःकरण के कर्म मल को दूर करने वाले, तीनों लोकों को शुद्ध करने वाले और सर्वोत्कृष्ट ऐसे तीर्थंकरों के धर्म तीर्थ को ही जो सदा चितवन करते रहते हैं, इस तपश्चरण से बढ़कर तीनों लोकों में और कोई श्रेष्ठ हित करने वाला नहीं है यही समझ कर जो बारह प्रकार के महाघोर तपश्चरण के करने में सदा उत्साह करते रहते हैं, जो पंचेन्द्रियों के सुख में उत्पन्न हुई इच्छा का निरोध करने में सदा उद्यत रहते हैं और जो प्रमाद रहित होकर शुद्ध चारित्राचरण को पालन कर तथा उत्तम क्षमा आदि दश प्रकार के उत्तम धर्मों को धारण कर सर्वोत्तम धर्म का पालन करते हैं। ऐसे भगवान अरहंत देव के लिंग को निर्ग्रन्थ अवस्था को धारण करने वाले महामुनि ऊपर लिखे अनुसार निर्मल उपायों से अपने शुद्ध आचरणों को पाल करते हैं उनके ही लिंग शुद्धि मानी गई है। राग-द्वेष रहित प्रमाद रहित जो बुद्धिमान मुनि मोक्ष प्राप्त करने के लिए मन, वचन, काय की शुद्धता पूर्वक मुनियों की माता के समान अष्ट प्रवचन मात्रकाओं के साथ-साथ पांच समिति और तीन गुप्तियों के साथ-साथ पंच . ... ..............................................hma प्रायश्चित्त विधान- ४२

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