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कार्य करता हुआ भी मैं अन्य ही कर रहा है ऐसा दिखाने का त्याग करना काय माया विवेक है । जिस पदार्थ में लोभ है उसकी तरफ हाथ पसारना इत्यादिक शरीर क्रिया न करना काय लोभ विधक है। इस वास्तु ग्राम आदि का मैं स्यामा हूँ ऐसे वचन उच्चारण न करना वाचा लोभ विवेक है। ममदं भावरूप मोहन परिणति कौन होने देने भाव लोभ विवेक है। शरीर को तुम पीड़ा मत करो अथवा मेरा रक्षण करो इस प्रकार के वचनों का न करना वाचा शरीर विवेक है। जिस वसतिका में पूर्व काल में निवास किया था उसमें निवास न करना और इसी प्रकार पहले वाले संस्तर में न सोना बैठना काय वसति संस्तर विवेक है। मैं इस वसति संस्तर का त्याग करता हूँ। ऐसे वचनों का बोलना वाचा वसति संस्तर विवेक है। शरीर के द्वारा उपकरणों को ग्रहण न करना काय उपकरण विवेक है। मैंने इन ज्ञानोपकराणदि का त्याग किया है ऐसा वचन का बोलना वाचा उपकरण निवेक है । अाहा पान के पदार्थ भक्षण न करम काय भक्त पान विवेक है। इस तरह का भोजन पान मैं ग्रहण नहीं करूँगा ऐसा वचन बोलना वाचा भक्त पान विवेक है।
बैयावृत्य करने वाले अपने शिष्यादिकों का सहवास न करना काय वैयावृत्य विवेक है । तुम मेरी वैयावृत्य मत करो ऐसे वचन बोलना वैयावृत्य विवेक है। सर्वत्र शरीरादिक पदार्थों पर से प्रीति का त्याग करना अथवा ये मेरे हैं ऐसा भाव छोड़ देना भाव विवेक है।
दोषेसति प्रायश्चित्तं गृहीत्वा विशुद्धि कारणं शुद्धिः।
अर्थात् दोष होने पर प्रायश्चित्त लेकर विशुद्धि करना शुद्धि कहलाती है। इस अपहृत संयम के प्रतिपादन के लिए ही इन आठ शुद्धियों का उपदेश दिया गया है। भाव, काय, विनय, ईर्यापथ, भिक्षा, प्रतिष्ठापन, शयनासन और वाक्य | आलोचना, शय्या, संस्तर, उपकरण, भक्तपान इस प्रकार वैयावृत्य करण शुद्धि पांच प्रकार की है। अथवा दर्शन, ज्ञान, चारित्र, विनय और आवश्यक ये पांच प्रकार की शुद्धि है । यहाँ व्याख्यान करने वाले और सुनने वालों को भी
प्रायश्चित्त विधान - ४