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देता है अथवा राजघराने की स्त्रियों को सेवन करता है अथवा और भी ऐसे ही ऐसे दुराचार कर जो जिनधर्म को दूषित करता है उसके लिए आचार्यों ने पारंभिक नाम का प्रायश्चित्त निश्चित किया है। उस प्रायश्चित्त को देते समय अपने संघ के चारों प्रकार के मुनि इकट्ठे होते हैं और मिलकर घोषणा करते है कि यह मुनि महापापी है इसलिए अवंदनीय है और श्री जिनशासन से बाहर है। तब वे आचार्य उसको कठिन अनुप्रस्थान नाम का प्रायश्चित्त देते हैं। तथाकस अपराधी मुनि को वे आचार्य अपने देश से निकाल देते हैं। मजबूत संहनन को धारण करने वाला धोर वीर महा बलवान वह मुनि भी जिस देश में जिन धर्म न हो उस क्षेत्र में जाकर गुरु के दिये हुए समस्त दोषों को शुद्ध करने वाले पूर्ण प्रायश्चित्त को अनुक्रम से पालन करता है इसको पारंभिक अनुप्रस्थान प्रायश्चित्त कहते हैं। मिथ्यादृष्युपदेशाथै मिथ्यात्वं च गतस्य या । दृग्विशुद्धचैरुचिस्तत्वादौ श्रद्धानं तदद्भुतं ॥ ८२ ॥
मिथ्यादृष्टियों के उपदेशादिक से जिसने मिध्यात्व को धारण कर लिया है वह यदि अपना सम्यग्दर्शन शुद्ध करने के लिए तत्वों में या देव शास्त्र गुरु में श्रद्धान कर लेता है उसको उत्तम श्रद्धान नाम का प्रायश्चित्त कहते हैं।
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श्रेष्ठ व्रतों को शुद्ध करने के लिए यह दश प्रकार का प्रायश्चित्त बतलाया है मुनियों को अपने-अपने समय के अनुसार युक्ति पूर्वक इनका पालन करना चाहिए। जो मूर्ख अभिमानी मुनि अपने तपश्चरण को महा तपश्चरण समझ कर व्रत आदिक के दोषों को शुद्ध करने के लिए प्रायश्चित्त नहीं करता उसके समस्त व्रतों को तथा समस्त तपश्चरण को वे दोष शीघ्र ही नष्ट कर देते हैं तथा उन व्रत और तप के नाश के साथ-साथ उसके समस्त गुण नष्ट हो जाते हैं। जैसे कि सड़ा हुआ एक पान अन्य सब पानों को सड़ा देता है। उसी प्रकार एक ही दोष से सब व्रत तप गुण नष्ट हो जाते हैं। इस प्रायश्चित्त को धारण करने से मन शल्य रहित हो जाता है। सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञानादिक गुणों के समूह सब निर्मल हो जाते हैं, चारित्र चंद्रमा के समान निर्मल हो जाता है, वे मुनि संघ में माननीय माने जाते हैं उन्हें किसी प्रकार का भय नहीं रहता और उनका मरण शल्य रहित सर्वोत्तम होता
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प्रायश्चित विधान ३८
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