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धर्मी हो ऐसे मुनि को भगवान जिनेन्द्र देव ने अपने ही गण का अनुप्रस्थान प्रायश्चित्त व्रत बना है उसके लिए संबंध अनुप्रस्थान, अनुप्रस्थान प्रायश्चित्त नहीं बतलाया है । इस स्वगण अनुप्रस्थान प्रायश्चित्त को धारण करने वाला मुनि शिष्यों के आश्रम से बत्तीस दण्ड दूर रहता है, जो अन्य मुनि दीक्षा से छोटे हैं उनको भी वंदना करता है परन्तु वे छोटे मुनि भी उसको प्रति वंदना नहीं करते। वह मुनि मौन धारण करता है अन्य मुनियों के साथ गुरु के सामने मौन धारण करता हुआ ही समस्त दोषों की आलोचना करता है और अपनी पीछी को उल्टी रखता है । कम से कम पाँच-पाँच उपवास करके पारणा करता है तथा अधिक से अधिक छः महीने का उपवास कर पारणा करता है और मध्यम वृत्ति से छह दिन, पन्द्रह दिन एक महीना आदि का उपवास कर पारणा करता है। इस प्रकार वह शक्तिशाली मुनि अपनी शक्ति के अनुसार अनेक प्रकार के उपवास करता हुआ पारणा करता है और इस प्रकार के अदभुत प्रायश्चिंत को बारह वर्ष तक करता है।
यदि वही चिर दीक्षित शूर वीर मुनि अपने अभिमान के कारण ऊपर लिखे दोषों को लगावे तो उसके लिए आचार्यों ने समस्त दोषों को दूर करने वाला पर गणपस्थान नाम का परिहार प्रायश्चित्त बतलाया है। उसकी विधि यह है कि आचार्य उस अपराधी को अन्य संघ के आचार्य के पास भेजते हैं। वे दूसरे आचार्य भी उसकी कही सब आलोचना को सुनते हैं तथा बिना प्रायश्चित्त दिये उसको तीसरे आचार्य के पास भेज देते हैं । वे भी आलोचना सुनकर चौथे आचार्य के पास भेज देते हैं । इस प्रकार वह सात आचार्य के पास भेज देते हैं। तदनंतर वे आचार्य ऊपर लिखा परिहार नामका प्रायश्चित्त देते हैं और वह शक्तिशाली मुनि उन सब प्रायश्चित्त को धारण करता है । इस प्रकार जैन शास्त्रों के अनुसार परिहार दो प्रायश्चित्त के भेद कहे गये हैं ।
अब अत्यन्त कठिन ऐसे पारंभिक नाम के प्रायश्चित बतलाये हैं । जो मुनि, तीर्थंकर, गणधर, संघ, जिनसूत्र की निन्दा करता है धर्मात्माओं की निन्दा करता है अथवा बिना राजा की सम्मति के उसके मंत्री आदि को जिन दीक्षा दे प्रायश्वित्त विधान ३७