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है। इस प्रकार प्रायश्चित्त धारण करने से सज्जनों को बहुत से गुण प्रगट हो जाते हैं। यही समझकर मुनियों को अपने वतों में जन कशी दोष लग जाये उसी समय में अपने व्रतों को शुद्ध करने के लिए प्रायश्चित धारण करना चाहिए।
इंदिय कसाय उवधीण मत्तपाणस्य चाविदेहस्स। एसविवेगो मणिदो पांचविधो दव्च भावगदो॥१६८॥ अहवा सरीरसेजा संथारूवहीण भत्तपाणस्स।
बच्चावच कराण य होई विवेगो तहा चेव ||१६९॥ इन्द्रिय विवेक, कषाय विवेक, भक्त पान विवेक, उपधि विवेक, देहविवेक, ऐसे विवेक के पांच प्रकार पूर्वागम में कहे गये हैं। अथवा शरीर विवेक वसति संस्तर विवेक, उपकरण विवेक, भक्तपान विवेक और वैयावृत्य करण विवेक ऐसे पांच भेद कहे गये हैं। वे इस प्रकार हैं। रूपादि विषयों में नेत्रादिक इंद्रियों की
आदर से अथवा कोप से प्रवृत्ति न होना । अर्थात् यह रूप में देखता हूँ शब्द मैं सुन रहा हूँ ऐसे वचनों का उच्चारण न करना द्रव्यतः इन्द्रिय विवेक है। रूपादि विषयों
का ज्ञान होकर भी राग द्वेष से भिन्न रहना अर्थात् रागद्वेष मुक्त ऐसी रूपादिक विषयों में मानसिक ज्ञान की परिणति न होना भावतः इंद्रिय विवेक है। द्रव्यत: कषाय विवेक के शरीर से और वचन से ऐसे दो भेद हैं।
भौहें संकुचित करना इत्यादि शरीर की प्रवृत्ति न होना काय क्रोध विवेक है। मैं मरूँगा इत्यादि वचन का प्रयोग न करना वचन क्रोध विवेक है। दूसरों का पराभव करना वगैरह के द्वेष पूर्वक विचार मन में न लाना यह भाव क्रोध विवेक है। इसी प्रकार द्रव्य मान, माया, लोभ कषाय विवेक भी शरीर और वचन के व भाव के भेद से तीन तीन प्रकार के हैं। उसमें शरीर के अवयवों को न अकड़ाना, मेरे से अधिक शास्त्र प्रविष्ट कौन है ऐसे वचनों का प्रयोग न करना ये काय व वचनगत मान विवेक है । मन के द्वारा अभिमान को छेड़ना भावमन कषाय विवेक है। मानों अन्य के विषय में बोल रहा है ऐसा दिखाना, ऐसे वचनों का त्याग करना अथवा कपट उपदेश न करना वाचा माया विवेक है। शरीर से एक
प्रायश्चित्त विधान - ३९