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जो मायाचारी शल्य से सहित मुनि इन दश दोषों में से किसी भी दोष के साथ आलोचना करते हैं उनकी उस आलोचना से व्रतों की शुद्धि थोड़ी सी भी नहीं होती है। जो मुनि इन दश दोषों को छोड़कर बालक के समान सरल स्वभाव से अपने दोषों को कह देते हैं उन्हीं की आलोचना से उसके सब व्रत शुद्ध हो जाते है । जिस प्रकार मलिन दर्पण अपना कुक काम नहीं कर सकता उसमें मुख नहीं दिख सकता उसी प्रकार महातपश्चरण और महाव्रत भी बिना आलोचना के अपना कुछ भी काम नहीं कर सकते अर्थात् उनसे कर्मों का संवर वा निर्जरा नहीं हो सकती। यही समझकर अपने हृदय में अपने दोषों को अच्छी तरह समझ लेना चाहिए और फिर अपने हृदय से गुरु के समीप उन दोषों को प्रगट कर देना चाहिए। जिस समय आचार्य एकांत में अकेले विराजमान हो उस समय अकेले शिष्य को उनके समीप जाकर अपने दोष कहने चाहिए। किसी के सामने अपने दोष नहीं कहने चाहिए।
आर्यिकाएँ दिन में ही प्रकाश में किसी को साथ लेकर आचार्य के समीप जाकर अपने दोषों की आलोचना करती है ऐसा सज्जन लोग समझते हैं। जो मुनि दोषों की आलोचना कर लेता है परन्तु उस दोष को दूर करने वाले तपश्चरण को नहीं करता उस प्रमादी के दोषों की शुद्धि कभी नहीं हो सकती । यह समझ कर शिष्यों को बहुत ही शीघ्र दोषों को दूर करने वाला प्रायश्चित्त लेना चाहिए। प्रायश्चित्त के लेने में थोड़ी सी भी देर नहीं करनी चाहिए। दिन वा रात के व्रतों में जो अतिचार लगे हों उनको मन, वचन, काय की शुद्धता पूर्वक निंदा, गर्हा के द्वारा शुद्ध करना प्रतिक्रमण कहलाता है। व्रतादिकों के कितने ही दोष आलोचना से नष्ट होते हैं और दुस्वप्न आदि से उत्पन्न होने वाले कितने ही दोष प्रतिक्रमण से नष्ट होते हैं । यही समझकर पाक्षिक, चातुर्मासिक, वार्षिक दोषों को दूर करने के लिए वचन पूर्वक जो आलोचना सहित प्रतिक्रमण किया जाता है उसको तदभव कहते हैं । द्रव्य से अन्न पान उपकरण आदि के दोषों से शुद्ध हृदय से अलग रहना विवेक है यह विवेक अनेक प्रकार का है। अथवा मूल से त्याग की हुई वस्तु का ग्रहण हो जाये और स्मरण हो आने पर फिर उसका त्याग कर दिया
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प्रायश्चित विधान ३५