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करना श्रद्धा नामक प्राधिका होता है। कोई दोष भालोनमा से दूर होता है। कोई दोष प्रतिक्रमण से दूर होता है। कोई दोष आलोचना और प्रतिक्रमण दोनों उपायों से दूर होता है। कोई दोष विवेक से दूर होता है। कोई दोष कायोत्सर्ग से मष्ट होता है। कोई दोष छेद से नष्ट होता है। कोई दोष मूल से नष्ट होता है। कोई दोष परिहार से नष्ट होता है और कोई दोष श्रद्धान से नष्ट होता है । इस प्रकार दोषों को नष्ट करने के दस प्रकार का उपाय बतलाया गया है। इसको ही क्षेपण, निर्जरण, शोधन, धावन, पुंछन (निराकरण), उत्छेदन और छेदन ऐसे आठ नाम हैं।
जो आचार्य प्रायश्चित्त और सिद्धांत शास्त्रों के जानकार है और पंचाचार में लीन हैं उनके समीप एकांत में बैठकर अपने व्रत, तप आदि की शुद्धि के लिए बिना किसी छल कपट के मन, वचन, काय कृत कारित अनुमोदना से किये हुए समस्त अतिचारों का निवेदन करना आलोचना कहलाता है। इस आलोचना के आकंपित, अनुमानित, दृष्ट, बादर, सूक्ष्म, छन्न,शब्दाकूलित, बहुजन, अव्यक्त, तत्सेवित ये दश दोष हैं। मुनियों को इन दश दोघों से रहित आलोचना करना चाहिए।
यदि आचार्य को कोई सुंदर ज्ञानोपकरण दे दिया जाये तो आचार्य संतुष्ट हो जायेंगे और मुझे थोड़ा प्रायिश्चत्त देंगे। यही समझ कर जो आचार्य को पहले ज्ञानोपकरण देता है और फिर उनके समीप जाकर आलोचना करना है उसको आकंपित नामका दोष लगता है। मेरे शरीर में पित्त प्रकृति का अधिक प्रकोप है अथवा मैं स्वभाव से ही दुर्बल हूँ, अथवा में रोगी हैं इसलिए मैं अधिक या तीव्र उपवासादि नहीं कर सकता। यदि मुझे बहुत थोड़ा प्रायश्चित्त दिया जायेगा तो मैं अपने समस्त दोषों का निवेदन प्रकर रीति से कर दूंगा अन्यथा नहीं इस प्रकार कहकर जो शिष्य आचार्य के समीप अपने दोष निवेदन करता है उसको अनुमानित दोष लगता है। जो शिष्य दूसरों के द्वारा बिना देखे हुए दोषों को छिपा लेता है।
और दिखे हुए दोषों को निवेदन करता है उसके आलोचना हष्ट नामका दोष लगता है। जो बालक मुनि वा अज्ञानी भुनि अपने आलस प्रमाद वा अज्ञान से छोटे-छोटे अपराधों को तो निवेदन नहीं करता किन्तु अपने आचार्य को स्थूल MEROLAamraxnxxरामे
प्रायश्चित विधान - ३३
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