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मंतव्य
प्रायश्चित्त नामका अंतरंग तप है उसका लक्षण कुंदकुंदाचार्य इस प्रकार
लिखते हैं।
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प्रायश्चितं ति तवोजेण विसज्यादि हु पव्वक्मणावं ! प्रायान्छित्तं पत्तो त्रि तेण वृत्तं दसविहं तु ॥ १८४ ॥
जिस तप से पूर्व काल में किया गया पातक नष्ट होकर आत्मा निर्मल होता है उसको प्रायश्चित्त तप कहते हैं। अर्थात् पुनरपि विशुद्ध होने पर पूर्व व्रतों से साधु परिपूर्ण होते हैं। इस तप के आचार्यों ने दस भेद कहे हैं।
आलोयण पड़िकमणं उभय विवेगोतहा विउसग्गो । तव केहो मूलं विय परिहारो चेव सदहणा ।। १८५ ॥ आचार्य अथवा देव के पास जाकर चारित्रासार पूर्वक उत्पन्न हुए अपराधों को निवेदन करना आलोचना प्रायश्चित्त कहलाता है। रात्रि भोजन त्याग सहित पंच महाव्रतों का उनके भावना के साथ उच्चारण करना प्रतिक्रमण नामका प्रायश्चित्त होता है। इसमें दिवस प्रतिक्रमण अथवा पाक्षिक प्रतिक्रमण करना चाहिए। आलोचना और प्रतिक्रमण करना उभय प्रायश्चित्त कहलाता है। गण विवेक और स्थान विवेक ऐसे विवेक के दो भेद हैं। कार्यत्सर्ग करना व्युत्सर्ग प्रायश्चित्त होता है। अनशनादिक को तप प्रायश्चित्त कहते हैं। पक्ष, मास, वर्ष इत्यादिक काल के प्रमाण से दीक्षा कम करना छेद प्रायश्वित कहलाता है। पुनः प्रारम्भ से दीक्षा देना मूल प्रायश्चित्त कहलाता है । परिहार के दो प्रकार हैं। गणप्रतिबद्ध परिहार, अगणप्रतिबद्ध परिहार जहाँ मुनि लघुशंका करते हैं, शौच करते हैं ऐसे स्थान पर जो बैठता है और पीछी आगे करके जो वंदना करता है। तथा इन मुनि जिसको वंदना नहीं करते हैं इस प्रकार गण में जो क्रिया करना वह गण प्रतिवाद, परिहार प्रायश्चित्त कहलाता है । जिस देश में धर्म का स्वरूप लोगों को मालूम नहीं है ऐसे देश में जाकर मौन तपश्चरण करना अगणप्रतिबद्ध परिहार प्रायश्चित्त कहलाता है । तत्त्व में रुचि करना या क्रोधादिकों का परित्याग
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प्रायश्चित्त विधान ३२
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