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हुआ उनको मुनि दीक्षा दी एवं अपना आचार्य पद प्रदान किया
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परन्तु पूज्य अंकलीकर आचार्य ने अपने आचार्यत्व काल में चतुर्विध संघ के कुशल अनुशास्ता बनकर जिनशासन की अभूतपूर्व प्रभावना की प्रभावना के साथ-साथ निरन्तर पठन-पाठन लेखन आदि कार्य अविरल रूप से चलते रहे जिससे उनके द्वारा रचित शिव पथ नामक ग्रन्थ श्रमण एवं श्रावक के लिए अमूल्य धरोहर निधि के रूप में सभी के समक्ष हैं। उसके बाद आचार्य अंकलीकर जी ने अपनी विद्वत्ता का परिचय देते हुए प्रायश्चित्त ग्रन्थ की भी रचना की है। जो कि श्रमण समाज के लिए एक अमर देन सिद्ध हुई है। इसमें उन्होंने जैन सिद्धान्तों के अध्ययन के आधार पर द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव की अपेक्षा सहित व्रतों की शुद्धि हेतु दण्ड का प्रावधान लिखा है जो कि इस प्रकार उदाहरणार्थ हैं। वे लिखते हैं कि कृत्वा साक्षिणी दोष शुद्धये ।
आत्मादेव मनोवाक्काय संशुद्धया क्रियेन व्यंप्रतिक्रमं ॥
• अंकलीकर आचार्य कृत प्रायश्चित्त ग्रन्थ श्लोक - ४१
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अंकलीकर आचार्य लिखते हैं कि गुरु की साक्षी में आत्म समर्पण करने से ही दोषों की शुद्धि होती है उस शुद्धि के लिए मन वचन काय शुद्ध करके प्रतिक्रमण करना चाहिए। आचार्य श्री ने अपने प्रायश्वित्त विधान ग्रन्थ में गृहस्थियों के लिए प्रायश्चित विधि लिखी है उसमें उन्होंने लिखा है कि
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स्वप्ने प्रमादनो वाधमूल व्रत परिच्युतो ।
सर्व शुद्धि महास्नानं तपोवल्ली तपश्चरेत् ॥ ५४ ॥
- अंकलीकर आचार्य कृत प्रायश्वित्त विधान श्लोक ५४
अर्थात् वे लिखते हैं कि स्वप्न में प्रमाद से समूल व्रतों से गिर जाता है उसके लिए सर्वशुद्धि प्रायश्चित्त और तप रूपी जल से स्नान करना चाहिए । प्रायश्चित्त भी पूर्वाचार्यों के कथनानुसार शक्ति आदि की अपेक्षा देखकर ही देना चाहिए। जैसा कि लिखा है
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तदेतन्नवविधं प्रायश्चित्तं देशकालशक्तिसंयमाद्यविरोधेनाल्पान
प्रायश्चित्तविधान २४
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