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(५)
(इ) परोक्ष प्रमाण के छह भेद किये हैं- स्मृति, प्रत्यभिज्ञान, तर्क, ऊहापोह, अनुमान, आगम ।
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(ई) अनुमान के छह अवयव माने हैं उपनय, निगमन |
पक्ष, साध्य, हेतु, दृष्टान्त,
( उ ) हेतुका लक्षण अन्यथानुपपत्ति न मानकर व्याप्तिमान पक्षधर्म होना माना है ।
(ऊ) अनुमान के दो प्रकारों से भेद किये हैं - केवलान्वयी, केवलव्यतिरेकी तथा अन्वयव्यतिरेकी; दृष्ट, सामान्यतोदृष्ट, अदृष्ट ।
(ऋ) हेत्वाभासों के सात प्रकार किये हैं- असिद्ध, विरुद्ध, अनैकान्तिक, अकिंचित्कर, अनध्यवसित, कालात्ययापदिष्ट तथा प्रकरणसम |
( ऋ) आत्माश्रय, इतरेतराश्रय आदि के लिए भी तर्क शब्द का प्रयोग किया है ।
(ल.) जातियोंकी संख्या बीस बतलाई है ।
( ९ ) वाद के तीन ( व्याख्या, गोष्टी, विवाद ) तथा चार ( तात्विक, प्रातिभ, नियतार्थ, परार्थन ) प्रकार बतलाये हैं ।
(ऐ) बाद और जल्प में भेद होने का प्रबल खण्डन किया हैं ।
(ओ) करण प्रमाण के अन्तर्गत द्रव्य, क्षेत्र तथा काल के नापने के प्रकार बतलाये हैं |
(औ) उपमानप्रमाण के अन्तर्गत आगमिक परंपरा के पल्य, रज्जु आदि की गणना भी बतलाई है ।
इन बातों के अवलोकन से स्पष्ट होगा कि जहां आचार्य ने प्राचीन जैन आगमिक परम्परा के भावप्रमाण, करणप्रमाण, प्रत्यक्ष-परोक्ष आदि भेदों को सुरक्षित रखा है, वहा प्रत्यक्ष के भेद, हेतु का लक्षण, हेत्वाभास आदि के वर्णन में बौद्ध तथा नैयायिक विद्वानों के विचारों से भी लाभ उठाया है । जैन जैनेतर विचारों के समन्वय की इस दृष्टि से यह ग्रन्थ महत्त्वपूर्ण सिद्ध होगा ।
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