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प्रमाप्रमेयम्
[१.२८
त्वात्, यो यः चेतनो न भवति स सर्वोऽपि ज्ञाता न भवति, यथा पटः, ज्ञाता चायमात्मा, तस्माच्चेतनो भवति इत्यादि । ननु केवलव्यतिरेकि न प्रमाणं सपक्षसत्त्वरहितत्वात् विरुद्धवत् इत्यपि मीमांसकः प्रायुक्त । अत्र सपक्षग्रहणसत्त्वस्मरणयोरभावे सपक्षसस्वरहितत्वस्य ज्ञातुमशक्यत्वात् अज्ञातासिद्धो हेतुः स्यात् । सपक्षग्रहणसंभवे केवलव्यतिरेकि - त्वाभावात् कस्याप्रामाण्यं प्रसाध्येत, न कस्यापि । प्राभाकरपक्षे सपक्षे सखरहितत्वं नाम सपक्षस्वरूपमात्रमेव । तदत्र केवलव्यतिरेकिणि नास्तीति स्वरूपासिद्धत्वं हेतोः स्यात् । ततः केवलव्यतिरेकि प्रमाण व्याप्तिमत्पक्षधर्मत्वात् धूमानुमानवदिति स्थितम् ॥
रेकी कहते हैं | उदा.- आत्मा चेतन है क्यों कि वह ज्ञाता है, जो चेतना नही होता वह ज्ञाता नही होता जैसे वस्त्र, आत्मा ज्ञाता है, अत: वह चेतन है । ( इस अनुमान में आत्मा इस पक्ष में चेतन होना साध्य हैं तथा ज्ञाता होना हेतु है, इस में पट इत्यादि विपक्ष तो संभव है किन्तु सपक्ष संभव: नही है क्योंकि जितने भी ज्ञाता हैं वे सब आत्मा होने से पक्ष में ही समाविष्ट हो जाते हैं अतः यह हेतु केवलव्यतिरेकी है ) । यहां भी मीमांसक शंकाकार प्रश्न करते हैं कि केवलव्यतिरेकी अनुमान प्रमाण नही होता क्यों. कि इस में सपक्ष में हेतु का अस्तित्व होना यह गुण नही है । विरुद्ध हेत्वाभास में भी सपक्ष में अस्तित्व न होना यही दोष होता है और उसी से वह अप्रमाण होता है । मीमांसकों के इस आक्षेप में सपक्ष में अस्तित्व न होना यह हेतु अज्ञातासिद्ध है ( उसका होना सिद्ध नही है ) क्यों कि सपक्ष का अस्तित्व ग्रहण करना तथा उस में हेतु के अस्तित्व को स्मरण करना यहां संभव नहीं है (यहां सपक्ष ही नहीं है अतः सपक्ष में हेतु है या नहीं है यह कहना संभव नहीं है) यदि सपक्ष का ज्ञान संभव हो तो वह हेतु केवलव्यतिरेकी नही रहेगा, फिर अप्रमाण किसे सिद्ध करेंगे। प्राभाकर मीमांसकों के पक्ष में भी सपक्ष में अस्तित्व के अभाव का अर्थ सपक्ष का स्वरूप ही है । वह सपक्ष इस केवलव्यतिरेकी हेतु में है ही नहीं अतः सपक्ष में अस्तित्व नही यह कहना स्वरूपासिद्ध हो जाता है । इसलिए केवलव्यतिरेकी हेतु भी प्रमाणभूत होता है क्यों कि धुंए से अग्नि के अनुमान के समान ही यहां भी व्याप्ति के
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