________________
८२
उक्तं च ।
राजा विप्लवको यत्र सभ्याश्चासमवृत्तयः । तत्र वादं न कुर्वीत सर्वज्ञोऽपि यदि स्वयम् ॥ ५९ ॥ [ ९३. पक्षपातनिन्दा ]
अयथार्थं ब्रुवतां सभ्य सभापतीनां निन्दा निगद्यते । युक्तायुक्तमतिक्रम्य पक्षपातावदेद यदि । ब्रह्मनादधिकं दुःखं नरकेषु समश्नुते ॥ ६० ॥ ब्रह्मघ्नानां च ये लोका ये च स्त्रीवालघातिनाम् । मित्रां कृतनानां ते ते स्वतोऽन्यथा ।। ६१ ॥ पक्षपाताद् वदेद् योऽपि गुणदोषातिलङ्घनात् । सोऽपि ब्रह्मविघातेन यदुःखं तद्भजत्यसौ ।। ६२ ।। अपि च । अपूज्या यत्र पूज्यन्ते पूज्यानामवमानना । तंत्र दैवकृतो दण्डः सद्यः पतति दारुणः ॥ ६३ ॥ है (वास्तविक विचारविमर्श नही हो सकता ) । कहा भी है गडबडी पैदा करता हो तथा सभासद समान भाव न रखते हो ( पक्षपाती हों ) वहां वादी स्वयं सर्वज्ञ भी हो तो बाद न करे ( क्यों कि ऐसे बाद में पक्षपात से निर्णय होता है, वादी के ज्ञान का कोई उपयोग नही होता ) । पक्षपात की निन्दा
जहां राजा
असत्य बोलनेवाले सभासद तथा सभापति की निन्दा इस प्रकार की जाती है । यदि ( सभापति या सभासद ) योग्य और अयोग्य को छोड कर पक्षपात से बोलता है तो वह ब्राह्मण की हत्या करनेवाले से भी अधिक दुःख नरक में प्राप्त करता है । असत्य बोलनेवाले को वही गति प्राप्त होती है जो ब्राह्मण की हत्या करनेवालों को, स्त्री तथा बच्चों की हत्या करनेवालों को तथा मित्रों की हत्या करनेवाले कृतन्न लोगों को प्राप्त होती है । गुण और दोष को छोड कर जो भी पक्षपात से बोलता है वह कोई भी हो, उसे वही दुःख प्राप्त होता है जो ब्राह्मण की हत्या करनेवाले को मिलता है । और भी कहा है-जहां पूज्य लोगों का अपमान होता है और अपूज्य लोगों का आदर होता है वहां तत्काल देवकृत दण्ड का आघात होता है | जहां जहां विद्वानों
Jain Education International
प्रमाप्रमेयम्
For Private & Personal Use Only
[१.९३
www.jainelibrary.org