Book Title: Pramapramey
Author(s): Bhavsen Traivaidya, Vidyadhar Johrapurkar
Publisher: Gulabchand Hirachand Doshi

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Page 158
________________ तुलना और समीक्षा व्याप्ति के ज्ञान को तक अथवा ऊह यह संज्ञा अकलंकदेव ने दी थी . तथा माणिक्यनन्दि ने उन का अनुसरण किया है। यह प्रमाण का प्रकार प्रत्यक्ष और अनुमान प्रमाणों से भिन्न है इस बात का विस्तृत समर्थन वादीभसिंह की स्याद्वादसिद्धि में (प्रकरण १३) पाया जाता है। __ न्यायसूत्र में तर्क शब्द का प्रयोग इस से भिन्न अर्थ में हुआ है। अनुमान के लिए उपयोगी विचारविमर्श को वहां तर्क कहा है । उन के . कथनानुसार तर्क न प्रमाण है, न अप्रमाण, वह प्रमाण के लिए उपयोगी है। अनुमान के प्रकार (परि० १६, २६-२९) __ आचार्य ने यहां तीन प्रकारों में अनुमान का विभाजन किया है । स्वार्थ तथा परार्थ इन प्रकारों का वर्णन प्रशस्तपाद, सिद्धसेन आदि के अनुसार है । केवलान्वयी, केवलव्यतिरेकी, तथा अन्वयव्यतिरेकी इन तीन प्रकारों का वर्णन उद्योतकर आदि के अनुसार है । किन्तु दृष्ट, सामान्यतोदृष्ट तथा अदृष्ट ये जो प्रकार आचार्य ने बतलाये हैं वे अन्यत्र देखने में नही आये । न्यायसूत्र में अनुमान के तीन प्रकार बतलाये हैं - पूर्ववत् ( कारण से कार्य का अनुमान), शेषवत् ( कार्य से कारण का अनुमान ) तथा सामान्यतोदृष्ट (कार्यकारणभाव से भिन्न सम्बन्धों पर आधारित अनुमान)। वाचस्पति ने सांख्यतत्त्वकौमुदी में अनुमान के दो प्रकार बतलाये हैं - वीत (विधिपर) तथा अवीत (निषेधपर)। १. न्यायविनिश्चय ३२९। स तर्कपरिनिष्ठितः । अविनाभावसंबन्धः साक-. ल्येनावधार्यते । २. उपलम्भानुपलम्भनिमित्तं व्याप्तिज्ञानमूहः । परीक्षामुख ३-७। ३. न्यायसूत्र १.१-४० । अविज्ञाततत्त्वेर्षे कारणोपपत्तितस्तत्त्वज्ञानार्थमूहस्तकः । न्यायभाष्य १-१-४० कथं पुनरयं तत्त्वज्ञानार्थो न तत्त्वज्ञानमेवेति । अनवधारणात् अनुजानात्ययमेकतरं धर्म कारणोपपत्त्या न त्ववधान यात न व्यवस्थति न निश्चिनोति एवमेवेदमिति । ४. न्यायावतार श्लो. ११ ( ऊपर उद्धृत किया है)। ५. न्यायवार्तिक पृ. ४६, ६. न्यायसार (पृ. १८ ) में हेतु के दो प्रकार दृष्ट और सामान्यतोदृष्ट बतलाये है, अदृष्ट का उल्लेख वहां नही है। ७. न्यायसूत्र १-१-५ अथ तत्पूर्वकं त्रिविधमनुमानं पूर्ववच्छेषवत् सामान्यतोदृष्टं च । ८. पृष्ठ ३०। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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