Book Title: Pramapramey
Author(s): Bhavsen Traivaidya, Vidyadhar Johrapurkar
Publisher: Gulabchand Hirachand Doshi

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Page 174
________________ तुलना और समीक्षा आगम ( परि० १२३ ) यहां आचार्य ने आगम के प्रणेता आप्त का जो लक्षण बतलाया है वह सर्वज्ञ और असर्वज्ञ दोनों में संभव है । यह बात परम्परा-संमत भी है । सिद्धसेन ने शाब्द प्रमाण का वर्णन करते हुए दो श्लोक लिख कर इस प्रमाण में असर्वज्ञ के वाक्य और सर्वज्ञ के वाक्य दोनों का अन्तर्भाव सूचित किया है । वात्स्यायन ने आप्त शब्द के अर्थ में ऋषि, आर्य, म्लेच्छ तीनों का अन्तर्भाव किया है । देवसूरि ने आप्त के दो प्रकार बतलाये हैं- लौकिक तथा लोकोत्तर । पिता इत्यादि लौकिक आप्त हैं तथा तीर्थकर लोकोत्तर आत हैं । १५३ ऐसा होने पर भी आगम प्रमाण के वर्णन में सर्वज्ञप्रणीत आगम को मुख्यता रहती है । इस के लिए प्रयुक्त दूसरा शब्द श्रुत है । यह शब्द भी दो अर्थों में प्रयुक्त होता है । सर्वसाधारण व्यक्तियों का मतिज्ञान पर आधारित ज्ञान श्रुत कहलाता है" । तथा सर्वज्ञों के केवलज्ञान पर आधारित उपदेश को भी श्रुत कहते हैं । उमास्वाति ने श्रुतज्ञान के वर्णन में इन दोनों प्रकारों को एकत्रित किया है - वे श्रुत को मतिपूर्व कहते हैं किन्तु उस के भेदों के वर्णन में सर्वज्ञप्रणीत ज्ञान के प्रतिपादक ग्रन्थों की गणना करते हैं । 1 यहां आचार्य ने आगम ग्रन्थों की नामावली में बारह अंगप्रन्थों के अतिरिक्त अंगबाह्य ग्रन्थों के नाम भी गिनाये हैं । इन में से अधिकांश ग्रन्थों के संस्करण श्वेताम्बर परम्परा में प्रसिद्ध हैं । दिगम्बर परम्परा में इन के अध्ययन की परम्परा टूट गई है । १. न्यायावतार टीका पृ. ४२ । शाब्दं च द्विधा भवति लौकिकं शास्त्रजं चेति तत्रेदं द्वयोरपि साधारणं लक्षणं प्रतिपादितम् (श्लोक. ८ ) . २. न्यायभाष्य १-१-७ | साक्षात्करणमर्थस्य आप्तिः तया प्रवर्तत इत्याप्तः । ऋष्यार्थम्लेच्छानां समानं लक्षणम् । ३. प्रमाणन यत्तत्त्वालोक अ. ४. ६-७ । स च द्वेधा लौकिको लोकोत्तरश्च । लौकिको जनकादिः लोकोत्तरस्तु तीर्थ करादिः । Jain Education International ४. नन्दीसूत्र (म. २४ ) | मइपुब्वं जेण सुयं, न मई सुषपुब्विया । ५. तत्त्वार्थसूत्र १ - २० । श्रुतं मतिपूर्वे द्वयनेकद्वादशभेदम् । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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