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तुलना और समीक्षा
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१५१ उस की उन्हें अधिक चिन्ता है । इस बात को ले कर बाद के नैयायिक विद्वानों ने वाद के लिए वीतरागकथा तथा जल्प के लिए विजिगीषुकथा इन शब्दों का प्रयोग किया है । इस प्रकार जहां सूत्रकार और भाष्यकार वाद और जल्प में केवल साधन का भेद बतलाते हैं वहां उत्तरवर्ती लेखक उन में उद्देश का भेद भी मानते हैं - वाद तत्त्वनिर्णय के लिए किया जाता है, तथा जल्प स्वपक्ष के विजय के लिए किया जाता है । भावसेन ने वाद और जल्प में उद्देश भेद तथा साधनभेद की इन दोनों बातों को एकत्रित कर के उन की आलोचना की है अतः वे इन दोनों में भेद स्वीकार नही करते । किन्तु बाद में तत्त्वनिर्णय तथा स्वपक्षविजय ये पृथक् उद्देश होते हैं यह उन्हें मान्य है, तदनुसार उन्होंने व्याख्यावाद, गोष्टीवाद तथा विवाद का पृथक वर्णन पहले किया भी है ( परि. ८७ - ८९ )३।
वाद और जल्प को अभिन्न मानने की जैन आचार्यो की परम्परा में उल्लेखनीय अपवाद जिनेश्वरसूरि का है। इन दोनों में उद्देश भेद और साधन - भेद को स्वीकार करते हुए उन्हों ने इन में बाह्य भेद को स्पष्ट किया है
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१. न्यायवार्तिकतात्पर्य टीका पृ. ६६८ । यस्तु स्वदर्शनविलसित मिथ्याज्ञानावलेप दुर्विदधतया सद्विद्यावैराग्याद् वा लाभपूनाख्यात्यर्थितया कु.हेतुभिरीश्वराणां जनाधाराणां पुरतो वेदब्राह्मणपरलोकादिदुषणप्रवृत्तः तं प्रतिवादी समीचीनदूषणम् अप्रतिमया अपश्यन् जल्पवितण्डे अवतार्य विगृह्य जल्पवितण्डाभ्यां तत्त्वकथनं करोति विद्यापरिपालनाय मा भूदीश्वराणां मतिविभ्रमेण तच्चरितमनुवर्तिनीनां प्रजानां धर्मविप्लव इति ।
२. न्यायसार पृ. ४१-४२ । वादिप्रतिवादिनोः पक्षप्रतिपक्षपरिग्रहः कथा सा द्विविधा वीतरागकथा विजिगीषु कथा चेति । न्यायमंजरी भा. २ पृ. १५१ । वादं च निर्णय फलार्थिभिरेव शिष्य सब्रह्मचारिगुरुभिः सह बीतरागैः । न ख्याति - लाभरभसप्रतिवर्धमान स्पर्धानुबन्धविधुरात्मभिरारभेत ॥
३. इसी प्रकार देवसूरि ने वाद के दो उद्देश मानते हुए भी पृथक प्रकारों के रूप में उनका वर्णन नही किया है । ( प्रमाणनयतत्वालोक अ. ८ सू. २ प्रारम्भकश्चात्र जिगीषुः तत्त्वनिर्णिनीषुश्च । )
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