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तुलना और समीक्षा
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" का कथन है' | व्याख्या और गोष्ठी में जय-पराजय का उद्देश नही होता, विवाद में वही मुख्य उद्देश होता है । इस भेद को न्यायदर्शन की परम्पर
वाद (तत्त्वनिर्णय के लिए ) तथा जल्प ( जय-पराजय के सिए) इन शब्दों द्वारा व्यक्त किया है । किन्तु जल्प में छल, जाति आदि के प्रयोग की उन्हों ने छूट दी है। अत: जैन आचार्यों ने इस भेद को अस्वीकार कर के जल्प और बाद को एकार्थक शब्द माना है । इस की विस्तृत चर्चा भावसेन ने आगे की है (परि. १०३ - १२२ ) ।
परि. ८९ के पहले श्लोक का रूपान्तर पंचतंत्र (तं. २ श्लो. ३०) में मिलता है । वहां इस का रूप यह है - ययोरेव समं वित्तं ययोरेव समं कुलम् । तयोरेव विवाहः स्यान्न तु पुष्टविपुष्टयोः ॥ यही रूप इस ग्रंथ के तं. १ श्लो. ३०४ में भी मिलता है ।
वाद के चार अंग ( परि० ९० - ९४ )
इस विषय का संक्षिप्त वर्णन सिद्धिविनिश्चय प्र. ५, तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक पृ. २७७ - २८०, प्रमाणनयतत्त्वालोक अ. ८ आदि में मिलता है । इन चार अंगों में सभापति के लिए परिषवल तथा सभ्य के लिए प्राश्निक इन शब्दों का प्रयोग भी मिलता है । कुमारनन्दि आचार्य के वादन्याय ग्रन्थ में इस का विस्तृत वर्णन था ऐसा विद्यानन्द के कथन से प्रतीत होता है । परि. ९३ के अपूज्या यत्र इत्यादि श्लोक का रूपान्तर पंचतन्त्र (तं. ३ लो. २०१ ) में मिलता है। वहां इस की दूसरी पंक्ति इस प्रकार है - त्रीणि · तत्र प्रवर्तन्ते दुर्भिक्षं मरणं भयम् । पंत्रविचार (परि० ९९-१०२ )
इस विषय का वर्णन विद्यानन्दकृत पत्रपरीक्षा पर आधारित है । इस - ग्रन्थ से आचार्य ने तीन लोक उद्धृत किये हैं । विद्यानन्द ने भी किसी पूर्ववर्ती ग्रन्थ से कई श्लोक उद्धृत किये हैं किन्तु वह ग्रन्थ उपलब्ध नही है । प्रभाचन्द्र ने संक्षेप से इस विषय का वर्णन किया है ( प्रमेयकमलमार्तण्ड पृ. २०७ - २१ ० )
१. तवार्थश्लोकवार्तिक पृ. २८० । द्विप्रकारं जगौ जल्पं तत्त्वप्रातिभगोचरम् । त्रिषष्टेर्वादिनां जेता श्री दत्तो नल्पनिर्णये ॥
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