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प्रमाप्रमेयम्
इस संबन्ध में जैन आचार्यों का दृष्टिकोण यह है कि वाद में जिस पक्ष को उचित सिद्ध किया जा सके वह विजयी होता है तथा जिस पक्ष का खण्डन किया जाता है वह पराजित होता है | अतः पक्ष को सिद्ध करना यह विजय का स्वरूप है । वादी यदि अपने पक्ष को सिद्ध नहीं कर सकता तो केवल प्रतिवादी की गलती के कारण प्रतिवादी को पराजित और वादी को विजयी नही मानना चाहिए । इसी प्रकार वादी यदि अपना पक्ष सिद्ध कर सकता है तो वाक्य रचना की गलती जैसे कारण से उसे पराजित नही मानना चाहिए। तात्पर्य यह है कि बाद में तत्त्वनिर्णय की मुख्यता होनी चाहिए - व्याक्ति के विजय या पराजय की मुख्यता नही होनी चाहिए । इस विषय का वर्णन अकलंकदेव ने संक्षेप से किया है। विद्यानन्द ने दृष्टिकोण यही रखा है किन्तु निग्रहस्थानों के पूर्ववर्णित प्रकारों की विस्तृत चर्चा की है, प्रभाचन्द्र ने इन दोनों आचार्यों के कथनों का तात्पर्य संगृहीत किया है।
वाचस्पति के कथनानुसार समस्त जातियां भी पराजय का कारण होती हैं-उन का समावेश निरनुयोज्यानुयोग निग्रहस्थान में करना चाहिए। वाद के प्रकार (परि० ८६-८९ तथा ९५-९८)
यहां आचार्य ने वाद के तीन प्रकार किये हैं - व्याख्या, गोष्ठी तथा' विवाद । तथा चार प्रकारों में विवाद का वर्गीकरण किया है - तात्त्विक, प्रातिभ, नियतार्थ तथा परार्थन । इन में से केवल तात्त्विक और प्रातिभ इन दो प्रकारों का उल्लेख श्रीदत्त आचार्य के जल्पनिर्णय में था ऐसा विद्यानन्द
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१. न्यायविनिश्चय का. ३७८-७९ । असाधनाङ्गवचनमदोषोद्भावनं द्वयोः । न युक्तं निग्रहस्थानमर्थापरिसमाप्तितः ।। वादी पराजितोऽयुक्तो वस्तुतत्वे व्यवस्थितः । तत्र दोषं ब्रुवाणो वा विपर्यस्तः कथं जयेत् ॥ इस का विस्तार सिद्धि विनिश्चय प्र. ५ की टीका में प्राप्त होता है।
२. तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक पृ. २८३-२९४ यहां विद्यानन्द ने पूर्वोक्तमाईस निग्रहस्थानों के साथ छल और जाति की भी गणना की है ।
३. प्रमेयकमलमार्तण्ड पृ. २००-२०४. ४. न्यायवार्तिकतात्पर्य टीका पृ. ७२३.
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