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जातियां (परि० ४५-६९ )
यहां जातियों का समुच्चित लक्षण नैयायिक परम्परा के अनुसार है । जातियों के चौबीस प्रकारों के नाम तथा लक्षण न्यायसूत्र में मिलते हैं । उस में साध्यसम के स्थान पर आचार्य ने असिद्धादिसम का वर्णन किया है। अकलंकदेव ने जातियों का सामान्य लक्षण ही बताया है - भेदों का चर्णन नही किया क्यों कि ये भेद अनन्त हो सकते हैं तथा शास्त्र में उन का विस्तार से वर्णन हो चुका है । यहां शास्त्र शब्द से उन का अभिप्राय न्यायसूत्र से हो सकता है । जातियों की संख्या का नियम नही है यह बात नैयायिक विद्वानों ने भी मानी है । न्यायसार में सोलह जातियों का ही वर्णन है किन्तु न्यायसूत्र में वर्णित जातियों के अतिरिक्त अनन्यसमा आदि जातियां हो सकती हैं इस की सूचना भी वहां मिलती है५ ।
प्रमाप्रमेयम्
भावसेन ने जातियों की संख्या बीस मानी है । वे अर्थापत्तिसम तथा उपपत्तिसम को प्रकरणसम से अभिन्न मानते हैं । जयन्त ने प्रकरणसम तथा उपपत्तिसम को साधर्म्यम से अभिन्न मानने के मत का उल्लेख कर उस का खण्डन किया है, उन का कथन है कि साधर्म्यसम में प्रतिपक्ष का
१. न्यायसूत्र १-२-१८। साधर्म्यवैधर्म्याभ्यां प्रत्यवस्थानं जातिः । न्यायसार पृ. ४६ प्रयुक्ते तो समीकरणाभिप्रायेण प्रसंगो जातिः ।
२. न्यायविनिश्चय श्लो. ३७६ मिथ्योत्तराणामानन्त्यात् शास्त्रे वा विस्तरोक्तितः । साधर्म्यादिसमत्वेन नातिनेह प्रतन्यते || विद्यानन्द तथा प्रभाचन्द्र ने इसी ष्टकोण को मान्य किया है किन्तु वे पूर्ववर्णित जातियों का वर्णन भी करते है ( तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक पृ. २९८-३१० प्रमेयकमलमार्तण्ड पृ. १९६ - २०० ) । ३. न्यायमंजरी भा. २ पृ. १७६ । सत्यप्यानन्त्ये जातीनामसंकीर्णोदाहरणविवक्षया चतुर्विंशतिप्रकारत्वमुपवर्णितम् न तु तत्संख्या नियमः कृत इति ।
४. न्यायसार पृ. ४७-५५ इस में प्रसंगसम, प्रतिदृष्टान्तसम, संशयसम, प्रकरणसम, अर्थापत्तिसम, अनित्यसम तथा कार्यसम का वर्णन नही है ।
५. न्यायसार पृ. ५५-५६ । एतेनान्यत्वस्य आत्मनोऽनन्यत्वात् अन्यत्वं नास्तीत्यसदुत्तराणि ( टीका - इयमनन्यसमा जातिः ) प्रत्युक्तानि । आनन्त्यात् न सर्वाणि जात्युत्तराणि उदाहर्तुं शक्यन्ते सूत्राणामपि उदाहरणार्थत्वात् ।
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