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प्रमाप्रमेयम्
तीन या चार कथाएं ( परि० १०३ - १०५ )
दार्शनिक चर्चा के लिए यहां कथा शब्द का प्रयोग किया है । न्यायसूत्र में इस के तीन प्रकार किये हैं- वाद, जल्प तथा वितण्डा | वही इनके जो लक्षण दिये हैं उन का आचार्य ने शब्दशः खण्डन किया है । न्यायसार में वितण्डा के दो प्रकार किये हैं- वाद की वितण्डा तथा जल्प की वितण्डा ( प्रतिवादी के पक्ष का खण्डन ही जिस में हो स्थापन न हो उस वाद को वादवितण्डा कहेंगे तथा ऐसे ही जल्प को जल्पवितण्डा कहेंगे ) । वाद- वितण्डा के अस्तित्व का समर्थन करने के लिए वहां न्यायसूत्र का एक वाक्य भी उद्धृत किया है । इस प्रकार कथा के चार प्रकार होते हैं ।
स्वपक्ष का
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वाद और जल्प में अभिन्नता ( परि० १०६ - १२२ )
न्यायसूत्र तथा भाष्य में वाद और जल्प का जो वर्णन है उस से प्रतीत होता है कि इन दोनों में छल आदि के प्रयोग का ही भेद है, वाद में छल आदि प्रयुक्त नहीं होते किन्तु जल्प में होते हैं । जैन आचार्यों ने नैतिकता की दृष्टि से छल आदि के प्रयोग का निषेध किया है और इस भेद के अभाव में वाद और जल्प को समानार्थक माना है । छल आदि को अनुचित मानते हुए भी नैयायिक विद्वान जल्प में उन के देते हैं क्यों कि जल्प में विजय प्राप्त होने पर जो सामाजिक
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१. न्यायसूत्र १-२-१, २, ३ । प्रमाणतर्कसाधनोपालम्भः सिद्धान्ताविरुद्धः पञ्चावयवोपपन्नः पक्षप्रतिपक्षपरिग्रहो वादः । यथोक्तोपपन्नः छलजातिनिग्रहस्थान-साधनोपालम्भो जल्पः । स एव प्रतिपक्षस्थापनाहीनो वितण्डा |
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प्रयोग की छूट लाभ होता है:
२. न्यायसार पृ. ४२-४४ टीका- एवं च वीतरागवितण्डा विजिगीषु-वितण्डा इति द्विविधा वितण्डा, एतच्च तं प्रतिपक्षहीनमपि वा कुर्यात् ( न्यायसू ४-२-४९ ) इति सूत्रेणापि सूचितम् ।
३. सिद्धिविनिश्चयटीका पृ. ३११-१३ | समर्थवचनं जल्पं चतुरङ्गं विदुर्बुधाः इत्यादि प्रमाणसंग्रह पृ. १११ समर्थवचनं वादः इत्यादि तत्त्वार्थ श्लोक वार्तिक पृ. २७८.
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