________________
१४०
प्रमाप्रमेयम्
हेतु का स्वरूप (परि० १९ तथा २२-२५)
न्यायसूत्र के अनुसार हेतु वह होता है जो उदाहरण की समानता से या भिन्नता से साध्य को सिद्ध करे । दिग्नाग ने उदाहरण की समानता
और भिन्नता को व्यवस्थित रूप में प्रस्तुत करते हुए कहा कि जो पक्ष में है, सपक्ष में है तथा विपक्ष में नही है वह हेतु होता है । इस पर कुमारिल का कथन था कि हेतु का पक्ष में अस्तित्व सर्वदा होता ही है ऐसा नही है - बाढ से भारी वर्षा का जहां अनुमान होता है वहां बाढ यह हेतु वर्षा के स्थान से बहुत दूर होता है । इसी बात को देखते हुए आचार्यों ने भी माना कि पक्ष - सपक्ष - विपक्ष की चर्चा न करते हुए हेतु उसे माना जाय जिस के बिना साध्य की उपपत्ति न लगती हो । यदि हेतु में अन्यथानुपपत्ति है तो अन्य गुण हों या न हों - इस से कोई फरक नही पडता। इस अन्यथानुपपत्ति लक्षण के प्रतिपादन का श्रेय आचार्य पात्रकेसरी को दिया जाता है । तथा सिद्धसेन, अकलंकदेव आदि ने इसी लक्षण को माना है। किन्तु इस प्रसंग में भावसेन ने व्याप्तिमान् पक्षधर्म यह हेतु का लक्षण बत्ला कर पूर्वपरम्पग की उपेक्षा की है, यहां वे बौद्ध-परम्परा से प्रभावित प्रतीत होते हैं। साथ ही हेतु के छह गुण बतला कर उन्हों ने नैयायिक
१. न्यायसूत्र १-१-३४, ३५ । उदाहरणसाधात् साध्यसाधनं हेतुः । तथा वैधात् । २. तत्र यः सन् सजातीये द्वेधा चासंस्तदत्यये ! स हेतुः विपरीतोऽस्मादसिद्धोन्यस्त्वनिश्चितः ।।
उधृत-न्यायवार्तिकतात्पर्यटीका पृ. २८९ ३. परि. २४ में उद्धृत श्लोक देखिए । हेमचन्द्र तथा देवम् रि ने इन्हें भट्ट (कुमारिल ) के नाम से उद्धृत किया है किन्तु कुमारिल के उपलब्ध ग्रन्थों में ये नही मिलते।
४. न्यायावतार श्लो. २२। अन्याथनुपपन्नत्वं हेतोर्लक्षणमीरितम् । न्यायविनिश्चय श्लो. ३२३ अन्यथानुपपन्नत्वं यत्र तत्र त्रयेण किम् । नान्यथानु. पपन्नत्वं यत्र तत्र त्रयेण किम् ।। ( यह श्लोक पात्रकेसरी का है तथा अकलंकदेवने । उद्धृत किया है)।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org