Book Title: Pramapramey
Author(s): Bhavsen Traivaidya, Vidyadhar Johrapurkar
Publisher: Gulabchand Hirachand Doshi

Previous | Next

Page 154
________________ तुलना और समीक्षा में किया है - अपने आप के सुख, दुःख आदि के ज्ञान में मन प्राप्यकारी होता है किन्तु स्मृति आदि परोक्ष ज्ञानों में वह अप्राप्यकारी होता है। यह बात अन्यत्र हमारे अवलोकन में नहीं आई। अवग्रह आदि ज्ञान (परि० ६) ___ यह वर्णन मुख्यतः तत्त्वार्थसूत्र की परम्परा के अनुसार है। किन्तु अभ्यस्त विषयों में अवग्रह तथा ईहा नही होते यह भावसेन का कथन अन्यत्र प्राप्त नही होता। योगिप्रत्यक्ष (परि० ७) ___सर्वज्ञ के ज्ञान में आत्मा और अन्तःकरण के संयोग की जो बात भावसेन ने कही है वह जैन परम्परा के अनुकूल नही प्रतीत होती। संभवतः नैयायिक परम्परा के प्रभाव से ऐसी शब्दरचना हुई है। इन्द्रियप्रत्यक्ष के वर्णन में भी आचार्य ने इसी प्रकार ' आत्मा के अवधान तथा अव्यग्र मन के सहकार्य से युक्त निर्दोष इन्द्रिय से प्रत्यक्ष ज्ञान प्राप्त होता है' जैसे शब्दों का प्रयोग किया है । अवधिज्ञान का विवरण तत्त्वार्थसूत्र की परम्परा के अनुसार है । मनःपर्यायज्ञान (परि० ८) ___ मनःपर्याय का विवरण तत्वार्थसूत्र की परम्परा के अनुसार है । किन्तु यह ज्ञान मन द्वारा होता है यह कथन परम्परा के प्रतिकूल है । १. तत्त्वार्थसूत्र अ. १ मू. १५ । अवग्रहे हावायधारणाः। २. अवधि, मन:पर्यय तथा केवल ज्ञान में इन्द्रिय और मन की अपेक्षा नही होती- तत्त्वार्थराजवार्तिक अ. १ सू. १२ । इन्द्रियानिन्द्रियान पेक्षम् अतीतव्यभिचारं साकारग्रहणं प्रत्यक्षम् । ३. तत्त्वार्थसूत्र अ. १ सू. २१-२२ । भवप्रत्ययोवधिदेवनारकाणाम् । क्षयोपशमनिमित्तः षड्विकल्प: शेषाणाम् । ४. तस्वार्थसूत्र अ. १ स. २३ ऋजुविपुलमती मनःपर्ययः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 152 153 154 155 156 157 158 159 160 161 162 163 164 165 166 167 168 169 170 171 172 173 174 175 176 177 178 179 180 181 182 183 184