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प्रमाप्रमेयम्
भासर्वज्ञ ने प्रत्यक्ष के योगिप्रत्यक्ष और अयोगिप्रत्यक्ष ये दो प्रकार किये हैं और इन को पुनः सविकल्पक तथा निर्विकल्पक इन प्रकारों में विभाजित किया है। इन्द्रियप्रत्यक्ष (परि० ४)
इस परिच्छेद में इन्द्रियों के प्रकार, आकार तथा विषयों का जो वर्णन है वह मुख्यतः तत्त्वार्थसूत्र की परम्परा के अनुसार है । इन्द्रियों का प्राप्यकारित्व (परि० ५)
न्यायसूत्र के प्रत्यक्षलक्षण के अनुसार इन्द्रियों का पदार्थ से संबंध (सन्निकर्ष) होने पर प्रत्यक्ष ज्ञान होता है । तदनुसार न्यायदर्शन में सभी इन्द्रियों के प्राप्यकारी (प्राप्त पदार्थ का ज्ञान करानेवाले) माना गया है ।
बौद्ध आचार्यों का मत है कि मन, कान तथा आंखें - ये तीन इन्द्रिय अप्राप्यकारी हैं -पदार्थ से असंबद्ध रह कर ही ये पदार्थ का ज्ञान कराते हैं।
जैन आचार्यों ने कान को प्राप्यकारी तथा आंख को अप्राप्यकारी माना है । भावसेन ने मन का समावेश प्राप्यकारी तथा अप्राप्यकारी दोनों
१. न्यायसार पृ. ७-१३ । तद् द्विविधं योगिप्रत्यक्षमयोगिप्रत्यक्षं चेति । ... तच्च पुनर्द्विविधम् । सविकल्पकं निर्विकल्पकं च ।
२. तत्त्वार्थस्त्र अ. २ सू. १५-२१ । पञ्चेन्द्रियाणि । द्विविधानि । निर्वत्युपकरणे द्रव्येन्द्रियम् । लब्ध्युपयोगी भाघेन्द्रियम् । स्पर्शनरसनध्राणचक्षःओत्राणि । स्पर्शरसगन्धवर्णशब्दाः तदर्थाः । सुतमनिन्द्रियस्य ।
३. यह लक्षण ऊपर उद्धृत किया है । ४. अप्राप्तान्यचिमनःश्रोत्राणि । अभिधमकोश १।४३ ।
५. वस्तुतः कान तथा आंख दोनों समान रूप से प्राप्यकारी हैं-ध्वनितरंग प्राप्त होने पर कान से शब्द का ज्ञान होता है उसी प्रकार प्रकाशकिरण प्राप्त होने पर आंख से रंग का ज्ञान होता है। किन्तु रंग के ज्ञान में प्रकाश के महत्त्व की ओर जैन आचार्यों का ध्यान नही गया है । आंख के प्राप्यकारित्व की चर्चा भावसेन ने विश्वतत्त्वप्रकाश (परि. ६८) में की है।
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