Book Title: Pramapramey
Author(s): Bhavsen Traivaidya, Vidyadhar Johrapurkar
Publisher: Gulabchand Hirachand Doshi

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Page 152
________________ तुलना और समीक्षा १३१ प्रमाण के लक्षण में भी उन्हों ने स्वपराभासि, स्वपरव्यवसायात्मक जैसे शब्दों द्वारा स्व का ज्ञान समाविष्ट किया है। __ भावसेन द्वारा वर्णित इन चार प्रकारों के नाम तो बौद्ध ग्रन्थों के अनुकूल हैं किन्तु बौद्ध आचार्यो द्वारा उन का जो स्वरूप बताया गया है वह भावसेनवर्णित स्वरूप से भिन्न है । बौद्धों ने मानसप्रत्यक्ष को वह ज्ञान माना है जो इन्द्रियों द्वारा पदार्थ का ज्ञान होने के बाद के क्षण में उसी पदार्थ के उत्तरक्षणवर्ती सन्तान के बारे में मन को होता है-अर्थात वे बाह्य पदार्थों को ही मानस प्रत्यक्ष का विषय मानते हैं। योगिप्रत्यक्ष को बौद्ध आचार्य निर्विकल्प ही मानते हैं । स्वसंवेदनप्रत्यक्ष का स्वरूप भी बौद्ध मत के अनुसार निर्विकल्प है। न्यायमूत्र में प्रत्यक्ष का जो लक्षण है वह केवल इन्द्रियप्रत्यक्ष का ही है। किन्तु उद्योतकर तथा वाचस्पति ने मानस प्रत्यक्ष तथा योगिप्रत्यक्ष का अस्तित्व स्वीकार किया है । यह भी भावसेनवर्णित प्रत्यक्षप्रकारों से भिन्न हैं क्यों कि ये आचार्य बाह्य पदार्थों को भी मानसप्रत्यक्ष का विषय मानते हैं । ज्ञान का स्वसंवेदन न्यायदर्शन में मान्य नहीं है अतः इस प्रत्यक्ष प्रकार को वे नहीं मान सकते। सिद्धसेन ने अनुमान के समान प्रत्यक्ष के भी स्वार्थ और परार्थ ये दो भेद किये हैं। किन्तु अन्य आचार्यों ने इस वर्गीकरण की ओर ध्यान नही दिया । १. न्यायबिन्दु पृ.१२-१४। कल्पनापोढमभ्रान्तं प्रत्यक्षम् । तच्चतुर्विधम् । इन्द्रियज्ञानम् । स्वविषयानन्तरविषयसहकारिणेन्द्रियज्ञानेन समनन्तरप्रत्ययेन जनितं तन्मनोविज्ञानम् । सर्वचित्तचत्तानामात्मसंवेदनम् । भूतार्थभावनाप्रकर्षपर्यन्तजं योगिज्ञानं चेति । २. यह लक्षण ऊपर उद्धृत किया है । ३. न्यायवार्तिकतात्पर्यटीका पृ. १८३ । इच्छादयः खलु धामणो भवन्ति मानसप्रत्यक्षदृष्टाः । पृ. २०३ । योगिप्रत्यक्षं स्वर्गादिविषयम् । ४. न्यायावतार श्लो. ११ । प्रत्यक्षेणानुमानेन प्रसिद्धार्थप्रकाशनात् । परस्य तदुपायत्वात् परार्थत्वं दूयोरपि ।। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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