Book Title: Pramapramey
Author(s): Bhavsen Traivaidya, Vidyadhar Johrapurkar
Publisher: Gulabchand Hirachand Doshi

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Page 155
________________ १३४ प्रमाप्रमेयम् स्वसंवेदनप्रत्यक्ष (परि० ९) इस का विवेचन ऊपर प्रत्यक्ष के प्रकारों में हो चुका है । प्रत्यक्ष के आभास (परि० १०) इस में अनध्यवसाय को आचार्य ने प्रत्यक्षाभास में नही गिनाया है तथा उसे ज्ञान का अभाव माना है । अनध्यवसाय का प्रमाणाभास में अन्तभर्भाव वादिदेवसूरि ने किया है, उसी का यह खण्डन प्रतीत होता है। भासर्वज्ञ ने अनध्यवसाय का अन्तर्भाव संशय में किया है । परोक्ष प्रमाण के प्रकार (परि० ११) ऊपर कहा जा चुका है कि तत्त्वार्थसूत्र के अनुसार मति और श्रुत (अर्थात इन्द्रिय और मन से प्राप्त समस्त ज्ञान ) ये ज्ञान परोक्ष हैं । इन में श्रुतज्ञान को परोक्ष मानने के विषय में सभी जैन आचार्य एकमत हैं। कुछ लेखकों ने श्रुत की जगह प्रवचन अथवा आगम जैसे शब्दों का प्रयोग किया है इतनाही फर्क है । मतिज्ञान (इन्द्रिय और मन से प्राप्त ज्ञान) को जिनभद्र आदि आचार्यों ने व्यवहारतः प्रत्यक्ष माना है यह ऊपर बता चुके हैं। मतिज्ञान के ही नामान्तर के रूप में स्मृति, संज्ञा, चिन्ता और अभिनिबोध इन चार शब्दों का उल्लेख तत्त्वार्थसूत्र में है। अकलंकदेव ने इन शब्दों को क्रमशः स्मृति, प्रत्यभिज्ञान, तर्क तथा अनुमान इन चार भेदों का वाचक माना है। इस प्रकार परोक्षप्रमाण के पांच भेद होते हैं -स्मृति, प्रत्यभिज्ञान, १. प्रमाणनयतत्त्वालोक ६-२५। यथा सन्निकर्षाद्यस्वसंविदितपरानवभासकज्ञानदर्शनविपर्ययसंशयानध्यवसायाः । २, न्यायसार पृ. ४ | अनवधारणत्वाविशेषात् ऊहानध्यवसाययोर्न संशयादर्थान्तरभावः। ३. तत्त्वार्थस्त्र १.१३ मतिः स्मृतिः संज्ञा चिन्ता भिनियोध इत्यनान्तरम् ४. वे इन ज्ञानों को शब्दयोजना के पहले प्रत्यक्ष मानते हैं तथा शन्दयोजना के बाद परोक्ष मानते हैं यह ऊपर बता चुके हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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